पूषा   

ऋग्वेदस्य ऋक्षु सार्वत्रिकरूपेण पूष्णः एकं विशेषणं अजाश्वः अस्ति। वैदिकवाङ्मये प्रातःकालतः सायंकालयावत् सूर्यस्य, चेतनायाः सूर्यस्य उदयनं अनेन प्रकारेण भवति। अज अवस्था सूर्योदयतः पूर्वावस्था अस्ति, अविः सूर्योदयानन्तरा, गौ मध्यह्नस्य, अश्वः अपराह्णस्य। या चेतना अनिरुक्तावस्थायां अस्ति, केवलं ऊष्मारूपेण अवस्थिता अस्ति, तस्याः संज्ञा अज अथवा अजा अस्ति – अजन्मा। अर्वाचीनभौतिकविज्ञाने प्रसिद्धमस्ति यत् कार्यस्य निष्पादनं शतप्रतिशतदक्षतया संभवं नास्ति। यदा कार्यस्य निष्पादनं भवति, तदा ऊर्जायाः एकस्य भागस्य रूपान्तरणं ऊष्मादि अन्यां ऊर्जायां भवति। अवशिष्टा ऊर्जा ऊष्मारूपेण व्यर्था भवति। अतएव कथयन्ति – न शतप्रतिशत दक्षता। जंगमप्राणिषु ऊष्मणः जननं केषु अवसरेषु भवति। भागवतपुराणे ३.१२.४७ कथनमस्ति – ऊष्माणमिन्द्रियाण्याहुः अन्तस्था बलमात्मनः। यद्यपि अस्य श्लोकस्य व्याख्या ऊष्माण एवं अन्तस्थ वर्णानामुपरि आधृता अस्ति, किन्तु बृहदस्तरे अस्य श्लोकस्य व्याख्या एवं प्रकारेण कर्तुं शक्यन्ते – यत्र – यत्र ऊष्मणः सर्जनं भवति, तत् इन्द्रियाणां ऊर्जा भवति। यत्र ऊष्मणः अवशोषणं भवति, तेन आत्मनः बलस्य सर्जनं भवति। भौतिकजीवनस्य आधारः देहमध्ये सुरायाः विघटनेन यस्य ऊष्मणः जननं भवति, तदेव अस्ति। तदा पूष्णः देवस्य किं वैशिष्ट्यं अपेक्षितमस्ति। किं पूषा देवः इन्द्रियस्य ऊर्जायाः रूपान्तरणं आत्मनः बले कर्तुं शक्यते। पुराणेषु सार्वत्रिकरूपेण कथनमस्ति यत् दक्षयज्ञे पूषादेवः रुद्रं द्रष्ट्वा अहसत्, अतएव वीरभद्रगणेन तस्य दंताः भग्नाः कृतानि। तेन कारणेन, पूष्णः हेतु या बलि दीयते, तत् पिष्टं भवति। एकः हंसः, आत्मा अस्ति, अन्यः आत्मनः परितः हसनं। हसने या ऊर्जा नष्टा भवति, तस्याः उपचारः केन प्रकारेण संभवमस्ति। कर्मकाण्डे पूष्णे करम्भस्य आहुतिः दीयमाना अस्ति। करम्भः अर्थात् क-रम्भः, इन्द्रियाणां स्तरे, स्थूल क स्तरे हसनस्य स्थितिः। अयं अपेक्षितमस्ति यत् रम्भस्य, हासस्य जननं समाधितः व्युत्थानप्राप्त्यन्तरं एव भवेत्। वैदिकवाङ्मये अस्य संज्ञा कबन्धः आथर्वणः अस्ति। आथर्वणः, डा. फतहसिंह अनुसारेण, अथ-अर्वाक् अस्ति। कबन्धः अर्थात् चेतनायाः यः स्थूलस्तरः कः अस्ति, तत् अन्तर्यामिस्तरतः बद्धः अस्ति। रामायणे कबन्धः रामाय सीतायाः स्थित्याः संकेतं ददाति। जैमिनीय ब्राह्मणे ३.३१२ कबन्धः आथर्वणः समूह एवं व्यूह, द्विप्रकारेण योजनस्य निर्देशं ददाति।

       यदि पूष्णः आधिपत्यं अजोपरि अस्ति, तर्हि पशुषु एवं मनुष्येषु यः अचेतनमनः अस्ति, तत् सर्वं पूष्णः अधिकारे भवति। रजनीशमहोदयानुसारेण, ध्यानस्य उद्देश्यः अचेतनस्य मनसः चेतनमनसि रूपान्तरणं अस्ति। बौद्धसम्प्रदाये समन्तभद्रः एवं मञ्जुश्री  संज्ञकयोः बोधिसत्त्वयोः अपरसंज्ञा पूषा अस्ति। समन्तभद्रस्य वाहनः हस्ती अस्ति, मञ्जुश्रियः सिंहः। समन्तभद्रस्य कृत्यं ध्यानमस्ति, मञ्जुश्रियः तमोनाशः(असि अस्त्रम्)।

तैत्तिरीयब्राह्मणे रेवतीनक्षत्रस्य अधिपतिः पूषा कथितमस्ति। एभ्यः चतुर्भ्यः पशुभ्यः, अज एवं अवि पश्वोः, ययोः संज्ञा क्षुद्रपशवः अस्ति, अधिपतिः रेवती अस्ति। गौ एवं अश्वपश्वोः अधिपतिः पूषा अस्ति। पूषा देवः गौ एवं अश्वपशुभ्यां केन प्रकारेण सम्बद्धः अस्ति, अस्मिन् संदर्भे वेदमन्त्रेषु उल्लेखमस्ति यत् अस्माकं धीः गोअग्रा भवेत्। अश्वानां संदर्भे उल्लेखमस्ति यत् अश्वानां सारथिः पूषा भवेत्, अश्वानां नियन्त्रणाय अभीषुः पूष्णः हस्ते भवेत्। महाभारते यः पाण्डोः आख्यानं अस्ति, तत्र पाण्डुः पूष्णः अंशावतारः अस्ति, अयं उल्लेखमस्ति। पाण्डोः एका भार्या माद्री अस्ति, यस्य पुत्रौ नकुलः एवं सहदेवः स्तः। नकुलः अश्वानां विशेषज्ञः अस्ति, सहदेवः गवां। एवं यदा पाण्डोः माद्रीभार्यया सह मैथुनं निष्प्रयोजनं आसीत्, तत्क्षणे एव पाण्डोः मृत्युरभवत्।

 

टिप्पणी – पूषा के विषय में पुराणों में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख है कि दक्ष यज्ञ में पूषा देव शिवगणों का उपहास करते हुए हंसा अथवा उसने शिवगणों को दांत दिखाए, अतः दक्ष यज्ञ के विध्वंस के पश्चात् दण्डस्वरूप पूषा के दांत तोड दिए गए। अतः पूषा को यज्ञ में जो कुछ भी अर्पित किया जाता है, वह पिष्ट रूप में दिया जाता है क्योंकि पूषा देव के दांत ही नहीं हैं। शतपथ ब्राह्मण १.७.४.७ में इस कथन का रूप यह है कि किसी कारण से प्रजापति का वीर्य स्खलित होकर पृथिवी पर बिखर गया जिसको प्राशित्र नामक पात्र में एकत्र कर लिया गया। प्रजापति का यह वीर्य व्यर्थ न जाए, इसलिए विभिन्न देवों ने उसे आत्मसात् करने का प्रयत्न किया। जब पूषा ने उसको मुख से ग्रहण करने का प्रयत्न किया तो उसके दांत टूट गए। तैत्तिरीय संहिता २.६.८.५ में प्राशित्र द्वारा इडा भक्षण के प्रसंग द्वारा इसी तथ्य को कहा गया है जहां इडा को पशवः कहा गया है। अतः पूषा को पिष्ट अर्पित करने का निर्देश है।  पुराणों के इस कथन को समझने के लिए वैदिक कर्मकाण्ड के बृहत् और रथन्तर सामों को समझने की आवश्यकता है। बृहत् साम के पद इस प्रकार हैं –

त्वामिद्धि हवामहे सातौ वाजस्य कारवः। त्वां वृत्रेषु सत्पतिं नरः त्वां काष्ठासु अर्वतः।। जब बृहत् साम का गान किया जाता है तो इस साम के अन्त में हस अक्षर और जोड दिए जाते हैं। इस हस अक्षरयुग्म को ही पुराणों में पूषा का हंसना या दांत दिखाना कहा गया है, ऐसा प्रतीत होता है।

 

५. बृहत्साम ।। भरद्वाजः । ककुबुत्तरा बृहती । इन्द्रः ।।


औहोइत्वामिद्धिहवामहाऽ३ए ।। सातौवाजा । स्याकाराऽ२३४वाः । तुवाऽ२४ । औहोवा। । वृत्राइषुवाइ । द्रासाऽ३१त् । पतिन्नाऽ२३४राः । । त्वांकाष्ठाऽ३४ । औहोवा ।। सूऽ२आर्वाऽ२३४ । ताः । उहुवाऽ६हाउ । वा ।। श्रीः ।। औहोइतुवाऽ३मे ।। काष्ठा । सूअर्वाऽ२३४ताः । सत्वाऽ३४ । औहोवा । नश्चाइत्रवा । ज्राहाऽ३१ । स्तधृष्णूऽ२३४या ।। महस्तवाऽ३४ । औहोवा ।। नोऽ२आद्राऽ२३४इ। । वाः । उहुवाऽ६हाउ । वा ।।श्रीः।। औहोइमहाऽ३ए ।। स्तवा । नोअद्राऽ२३४इवाः । गामाऽ३४ । औहोवा । शुवाꣲरथाह । यामाऽ३१इ । द्रसंकाऽ२३४इरा ।। सत्रावाजाऽ३४ । औहोवा ।। नाऽ२जाइ । नाऽ२जिग्यूऽ२३४ । षाइ । उहुवाऽ६हाउ । वा ।। हस् ।।

 

 

इसके विपरीत, जब रथन्तर साम का गान किया जाता है तो उसके अन्त में अस अक्षर जोडे जाते हैं। रथन्तर साम के आरम्भिक शब्द हैं – अभि त्वा शूर नोनुमो अदुग्धा इव धेनवः। इस पद का अर्थ है कि पृथिवी रूपी गौ इन्द्र या सूर्य को अपना वत्स मानकर उसका आह्वान कर रही है कि हे इन्द्र, तुम आओ, मैं अदुग्धा धेनुओं की भांति तुम्हारा आह्वान करती हूं। बृहत् साम के प्रतीकार्थ के रूप में कहा गया है कि यह द्युलोक से वर्षा जैसा है जिस वर्षा को ग्रहण करके सारी पृथिवी गर्भवती होती है। दूसरी ओर, रथन्तर साम द्वारा पृथिवी अपना श्रेष्ठतम भाग द्युलोक में स्थापित करती है, जैसे चन्द्रमा का कृष्ण भाग। एक अन्य पौराणिक संदर्भ(ब्रह्माण्डपुराण २.३.७.३३७) में कहा गया है कि रथन्तर साम द्वारा प्रतिष्ठा स्थापित की जाती है, जबकि बृहत् साम द्वारा दांतों, ओष्ठों की सुन्दरता प्राप्त की जाती है। प्रतिष्ठा का अर्थ होगा कि जो गर्भ पृथिवी में वर्षा से स्थापित हुआ है, उसका सम्यक् वर्धन हो, वह नष्ट न हो। सम्यक् वर्धन तभी हो सकता है जब पृथिवी वैसी ही हो जैसी राजा पृथु ने बनाई थी – ऐसी गौ जो सबके लिए दुग्ध का स्रवण करती है। इसका अर्थ हुआ कि पूषा के दांत किसी प्रकार से बृहत् साम का प्रतीक हैं और पुराणों में पूषा के दांत तोड देने का अर्थ होगा कि पूषा देव के कृत्य को बृहत् साम से हटाकर रथन्तर साम तक सीमित कर देना है।

बृहत् साम द्वारा जो वर्षा होती है, उसको इस प्रकार समझा जा सकता है कि एकीभूत सागर के जल को छोटी – छोटी बूंदों में, टुकडों में विभाजित कर दिया गया है जो पृथिवी पर ओषधि आदि के रूप में गर्भ बन जाता है। इस कथन को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि एकीभूत जल रूपी जो एकीकृत चेतना है, ईश्वर है, उसे संसार के जीवों के रूप में छोटी – छोटी बूंदों में विभाजित कर दिया गया है। जैसा कि पिष्ट शब्द की टिप्पणी में पहले ही विवेचन किया जा चुका है, प्रश्न यह है कि क्या इन छोटी – छोटी बूंदों को पुनः मिलाकर फिर एकीकृत ईकाई, ईश्वर का रूप दिया जा सकता है। इसका उत्तर यह दिया गया है कि यह छोटी – छोटी बूंदें परस्पर तभी मिलाई जा सकती हैं जब इनके बाहरी आवरण को शोधित कर दिया जाए। ऐसा प्रतीत होता है कि यह कार्य पूषा देव को सौंपा गया है। पूषा देव पिष्ट चेतनाओं को पुनः ईश्वर का रूप देने में समर्थ हैं। इस तथ्य को आधुनिक विज्ञान के शब्दों में इस प्रकार भी व्यक्त किया जा सकता है कि पूषा का कार्य इस ब्रह्माण्ड में उत्पन्न होती जा रही अधिक और अधिक अव्यवस्था को व्यवस्था प्रदान करना है, एण्ट्रांपी को न्यूनतम बनाना है। कहा गया है कि दासी को पीसना पसंद है। इसका अर्थ यह हो सकता है कि जब तक हमारी सात्विक धी या बुद्धि जड बुद्धि की दासी बनी हुई है, तब तक एक इकाई पिसती रहेगी, एण्ट्रांपी में वृद्धि होती रहेगी। जब पूषा देव किसी प्रकार से धी को दासीत्व से मुक्त करने में सफल होंगे, तब वह व्यवस्था की ओर, गौ तत्त्व की ओर बढेगी।

ऐतरेय ब्राह्मण १.७ में कथन है कि देवों ने यज्ञ करना चाहा तो उन्हें यज्ञ का मार्ग ज्ञात ही नहीं हो पाया। तब अदिति ने उनसे कहा कि वह यज्ञ का मार्ग बता सकती है। शर्त यह है कि यज्ञ के पहले और अन्त में अदिति की प्रतिष्ठा करनी होगी। इस शर्त के अनुसार यज्ञ के प्रायणीय नामक अह में अदिति की प्रतिष्ठा की जाती है। साथ ही साथ पथ्या स्वस्ति की प्रतिष्ठा भी की जाती है। कहा गया है कि पथ्या स्वस्ति के कारण ही सूर्य पूर्व में उदित होकर पश्चिम में अस्त होता है। पूषा की पत्नी का नाम पथ्या है(तैत्तिरीय आरण्यक ३.९.१ )। पूषा ही पथ का निर्धारण करता है। लोक में ओषधकर्म के समय गृहीत भोजन की संज्ञा पथ्य है, जो पथ पर कल्याणकारक हो, अनिष्टकारक न हो। सारी प्रकृती ही हमारे लिए पथ्य बनकर खडी हो जाए, वह पथ्या है। कहा गया है कि वाक् ही पथ्या स्वस्ति है।  इसका अर्थ यह लिया जा सकता है कि यदि किसी मार्ग पर चलते समय अन्तरात्मा की आवाज सुनाई पडती रहे, तभी स्वस्ति सम्भव हो पाती है।

इन कथनों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि पूषा का महत्त्व तब है जब वह अदिति से, अखण्ड शक्ति से जुडा हो। अदिति को समझने का एक पक्ष तो यह है कि यह सारा संसार खण्डों में विभाजित है जिसे दिति कहते हैं। इसी कारण इस संसार में द्यूत का, आकस्मिकता का प्राधान्य है। कोई भी घटना आकस्मिक रूप से घटित हो जाती है, उसके कारण का पता नहीं चल पाता। खण्डों में विभाजन को और अधिक गहराई से समझने की आवश्यकता है। जब हम कोई ऐसा कार्य करने बैठते हैं जिसमें हमारी रुचि नहीं है, तो उस कार्य को करते – करते हमारी चेतना खण्डों में ही विभाजित हो जाती है। हमारा मन कहीं और होता है, शरीर कहीं और। अथवा कहें कि मन, वाक् व कर्म में सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता। और गहन स्तर पर अदिति को इस प्रकार समझा जा सकता है कि इस संसार में जड पदार्थ की आंतरिक संरचना में एक सममिति विद्यमान है जिसे दर्पण सममिति या मिरर सिमीट्री कहते हैं। इसके अतिरिक्त और भी बहुत सी सममितियों की आवश्यकता है जिन्हें समझा जाता है कि वह सममिति स्थावरों में विद्युत के रूप में विद्यमान है(गोवान Gowan   )। जब जंगम प्राणियों के विषय में विचार करते हैं तो इन सममितियों का स्वरूप भिन्न – भिन्न प्रकार का हो सकता है। वेद मन्त्रों में तो पूषा से धियों के शोधन की प्रार्थना की गई है। हो सकता है कि धी या बुद्धि विभिन्न सममितियों का योग हो। अतः यदि पिसे हुए द्रव्य को पुनः एकीकृत करके एक इकाई, अदिति बनाने की सोची जाए तो इन सममितियों की पुनः स्थापना करना अनिवार्य होगा।

पूषा के विषय में ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि पशु ही पूषा हैं। पशु की एक विशेषता यह है कि वह कर्म करने के लिए, पुरुषार्थ के लिए स्वतन्त्र नहीं है। जो कुछ प्रकृति ने उसके लिए निर्धारित किया है, उसी के अनुसार उसे जीवन निर्वाह करना होगा। लेकिन पूषा की यह विशेषता है कि वह पशु की स्थिति को यज्ञ का आधार, प्रतिष्ठा बनाता है और यह कार्य वह पशु के अचेतन चित्त को विकसित करके करता होगा। पशु की एक विशेषता यह भी है कि पशु में पयः उत्पन्न हो सकता है। पयः वह स्थिति है जहां कोई भी तनाव नहीं रह जाता। अन्यथा सारी प्रकृति तनावों में जकडी हुई है। पूषा के संदर्भ में वैदिक मन्त्रों में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख है कि पूषा-विष्णु देव हमारी धीयों को गोअग्रा बना दे(ऋ. १.९०.५)। यह गोअग्रा धी भी तनाव – मुक्त स्थिति हो सकती है।

अन्यत्र कहा गया है कि रेवती नक्षत्र क्षुद्र पशुओं(अज, अवि आदि) का अधिपति है जबकि पूषा गौ व अश्व का। जैसा कि रेवती शब्द की टिप्पणी में उल्लेख किया जा चुका है, छान्दोग्य उपनिषद में रैवत साम की व्याख्या सूर्य के उदय होने से लेकर अस्त होने के काल को पांच पशुओं अज, अवि, गौ, अश्व व पुरुष के रूप में विभाजित करके की गई है। अज सूर्योदय से पूर्व की, उस समय की जब आत्मा की वाक् बहुत अस्पष्ट होती है, का प्रतीक है। रेवती शब्द में रव शब्द शोर का सूचक है जबकि रव का रूपान्तर अंग्रेजी का शब्द लव अर्थात् प्रेम बन जाता है। प्रेम ही पूषा का आधार है। जब तक रव रहेगा, क्षुद्र पशुओं की स्थिति ही बनी रहेगी। कर्मकाण्ड में जहां भी खण्डित वाक् होती है, उसका प्रतिनिधित्व अच्छावाक् नामक ऋत्विज करता है।

पूषा का शाब्दिक अर्थ है – पोषण करने वाला, अथवा फूल खिलाने वाला। पूषा के बारे में पुराणों (गर्ग संहिता) में  एक महत्त्वपूर्ण उल्लेख यह है कि राजा पाण्डु पूषा के अंशावतार हैं। यह उल्लेख पूरे महाभारत में पाण्डवों को समझने की दृष्टि प्रदान करता है। कर्मकाण्ड में जो भी कोई पात्र आदि हवि देने के लिए ग्रहण किया जाता है, उसके आरम्भ में इस मन्त्र का उच्चारण अवश्य किया जाता है – सवितुः प्रसविताभ्यां अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णोर्हस्ताभ्यां इति। अर्थात् मैं जो यह पात्र ग्रहण कर रहा हूं, यह सविता देव की प्रेरणा से, अश्विनौ देव-द्वय की बाहुओं से, पूषा देव के हस्तों से ग्रहण कर रहा हूं। मेरा अपना व्यक्तित्व इसमें बाधक नहीं है। पूषा के विषय में ब्राह्मण ग्रन्थों(शतपथ ब्राह्मण ३.९.४.३, ५.३.१.९) में कहा गया है कि पूषा भागदुघा है, अर्थात् बहुत सारे धन का ढेर लगा है, उसमें से किसको क्या मिलना चाहिए, इसका निर्णय पूषा देव करेंगे। इस कथन को दूसरे प्रकार से भी समझा जा सकता है। हमारा भाग्य, जो कुछ हमने अपने कर्मों के फल उत्पन्न किए हैं, वह हमारा धन है। हमारे कर्मों के फलस्वरूप जो बीज बने हैं, वह एक न एक दिन हमारे जीवन में अंकुरित होंगे ही। लेकिन वैदिक साहित्य का कथन है कि पूषा देव का पुरुषार्थ ऐसा है कि उस भाग्य के ढेर में से वह जिस बीज को चाहेंगे, वह अंकुरित होगा। जिसे नहीं चाहेंगे, वह अंकुरित नहीं होगा। अब देखना यह है कि ऐसा कौन सा पुरुषार्थ है जिससे हम अपने कर्मों के बीजों को इच्छानुसार अंकुरित कर सकें। वैदिक साहित्य में तो प्रत्यक्ष रूप से इस विषय में कुछ नहीं कहा गया है। लेकिन महाभारत की पाण्डु की कथा में इसकी व्याख्या कर दी गई है। पाण्डु की एक पत्नी का नाम कुन्ती या शकुन्तिका है। इसका अर्थ यह हुआ कि पाण्डु जो भी कर्म करता है, कर्म करने से पहले वह शकुन पर निर्भर करता है, अपनी आत्मा की आवाज को पहचानने का प्रयत्न करता है। वैदिक साहित्य में इसे इस प्रकार कहा गया है कि कर्मकाण्ड में पूषा देव को करम्भ की हवि दी जाती है। लौकिक रूप में, पिसे हुए भुने धान के आज्य में मिश्रण को करम्भ कहते हैं। लेकिन वाजसनेयि संहिता का कथन है कि उपवाकाः करम्भस्य। अर्थात् उपवाक करम्भ है। उपवाक् को शकुन ही समझ सकते हैं।

          पूषा के विषय में कहा गया है कि वह अपूजनीय देवों जैसे ब्रह्मा आदि में से एक है। अपूजनीय क्यों है, इस विषय में कहा गया है कि जिन देवताओं के पास दण्ड है, दण्ड देने की शक्ति है, उनकी तो लोक में पूजा करते हैं। जिनके पास दण्ड नहीं है, जैसे ब्रह्मा, पूषा आदि, उनको कोई नहीं पूजता। दण्ड से तात्पर्य ऊर्ध्वमुखी विकास से हो सकता है। पूषा का उद्देश्य ऊर्ध्वमुखी विकास नहीं है, अपितु जो कुछ हमें अपने भाग्य से प्राप्त हुआ है, उसका सर्वाधिक उचित रूप में उपयोग करना है।

     ऋग्वेद १.१४२.१२ आदि में इन्द्र को पूषण्वान्, मरुत्वान् आदि कहा गया है। इसी प्रकार ऋग्वेद २.१.६ में अग्नि को भी मरुतों का शर्ध, पूषा आदि कहा गया है। इन्द्र के लिए यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूषा से, मरुतों से मैत्री स्थापित करके रखे। मरुत भी प्राणों की बिखरी हुई स्थिति हैं और पूषा भी। इन दोनों में क्या भेद है जिसके कारण इनको देवों की दो अलग – अलग श्रेणियों में विभाजित करना पडा, यह अन्वेषणीय है। उपनिषदों में प्राणों की दो स्थितियों का उल्लेख आता है – प्राण और रयि। प्राणों द्वारा उत्तरायण मार्ग से गति होती है जबकि रयि द्वारा दक्षिणायन मार्ग से। पूषा को रेवती नक्षत्र का अधिपति कहा गया है(पूष्णोः रेवती। गावः परस्तात्, वत्सा अवस्तात् - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.१.५)। रेवती को रयिवती के रूप में समझा जा सकता है। अतः पूषा का सम्बन्ध भी रयि नाम के प्राणों से हो सकता है। ऋग्वेद २.४०.१ में भी सोम – पूषा देवता द्वय को रयियों का जनन करने वाला कहा गया है। लेकिन ऋग्वेद  २.४०.६ में पूषा को धी को जीवन देने वाली तथा सोम को रयि देने वाला कहा गया है।

     ऋग्वेद ४.३.७ में पूषा को पुष्टि का भरण करने वाला कहा गया है। अन्य ऋचाओं में सरस्वती को पुष्टि का भरण करने वाली कहा गया है। इस संदर्भ में ब्रह्माण्ड पुराण १.१.५.६२ का यह कथन उल्लेखनीय है कि ब्रह्मा ने इस सृष्टि में चार रूपों में प्रवेश किया – स्थावरों में विपर्यय रूप में, तिर्यकों में शक्ति रूप में, मनुष्यों में सिद्धि रूप में और देवों में पुष्टि रूप में। आधुनिक विज्ञान से संकेत मिलता है कि स्थावरों में विपर्यय कहने से तात्पर्य इस जगत में द्रव्य में नष्ट सममिति को को पूरा करने से है। यही स्थिति उच्चतर स्तरों पर भी समझी जानी चाहिए।

प्रथम लेखन – १२-१-२०१५ ई. (माघ कृष्ण सप्तमी , विक्रम संवत् २०७१)

 

संदर्भ

इन्द्रवायू बृहस्पतिं मित्राग्निं पूषणं भगम् ।

आदित्यान्मारुतं गणम् ॥ - १,०१४.०३

आ पूषञ्चित्रबर्हिषमाघृणे धरुणं दिवः ।

आजा नष्टं यथा पशुम् ॥ १,०२३.१३

पूषा राजानमाघृणिरपगूळ्हं गुहा हितम् ।

अविन्दच्चित्रबर्हिषम् ॥ १,०२३.१४

सं पूषन्नध्वनस्तिर व्यंहो विमुचो नपात् ।

सक्ष्वा देव प्र णस्पुरः ॥ १,०४२.०१

यो नः पूषन्नघो वृको दुःशेव आदिदेशति ।

अप स्म तं पथो जहि ॥ १,०४२.०२

अप त्यं परिपन्थिनं मुषीवाणं हुरश्चितम् ।

दूरमधि स्रुतेरज ॥ १,०४२.०३

त्वं तस्य द्वयाविनोऽघशंसस्य कस्य चित् ।

पदाभि तिष्ठ तपुषिम् ॥ १,०४२.०४

आ तत्ते दस्र मन्तुमः पूषन्नवो वृणीमहे ।

येन पितॄनचोदयः ॥ १,०४२.०५

अधा नो विश्वसौभग हिरण्यवाशीमत्तम ।

धनानि सुषणा कृधि ॥ १,०४२.०६

अति नः सश्चतो नय सुगा नः सुपथा कृणु ।

पूषन्निह क्रतुं विदः ॥ १,०४२.०७

अभि सूयवसं नय न नवज्वारो अध्वने ।

पूषन्निह क्रतुं विदः ॥ १,०४२.०८

शग्धि पूर्धि प्र यंसि च शिशीहि प्रास्युदरम् ।

पूषन्निह क्रतुं विदः ॥ १,०४२.०९

न पूषणं मेथामसि सूक्तैरभि गृणीमसि ।

वसूनि दस्ममीमहे ॥ १,०४२.१०

युनज्मि ते ब्रह्मणा केशिना हरी उप प्र याहि दधिषे गभस्त्योः ।

उत्त्वा सुतासो रभसा अमन्दिषुः पूषण्वान्वज्रिन्समु पत्न्यामदः ॥ १,०८२.०६

तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम् ।

पूषा नो यथा वेदसामसद्वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये ॥ १,०८९.०५

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ १,०८९.०६

वि नः पथः सुविताय चियन्त्विन्द्रो मरुतः ।

पूषा भगो वन्द्यासः ॥ १,०९०.०४

उत नो धियो गोअग्राः पूषन्विष्णवेवयावः ।

कर्ता नः स्वस्तिमतः ॥ १,०९०.०५  (अप्तोर्यामे अच्छावाकातिरिक्तोक्थे अनुरूपतृचः)

नराशंसं वाजिनं वाजयन्निह क्षयद्वीरं पूषणं सुम्नैरीमहे ।

रथं न दुर्गाद्वसवः सुदानवो विश्वस्मान्नो अंहसो निष्पिपर्तन ॥ १,१०६.०४

आ वो रुवण्युमौशिजो हुवध्यै घोषेव शंसमर्जुनस्य नंशे ।

प्र वः पूष्णे दावन आं अच्छा वोचेय वसुतातिमग्नेः ॥ १,१२२.०५

प्रप्र पूष्णस्तुविजातस्य शस्यते महित्वमस्य तवसो न तन्दते स्तोत्रमस्य न तन्दते । १,१३८.०१ 

प्र हि त्वा पूषन्नजिरं न यामनि स्तोमेभिः कृण्व ऋणवो यथा मृध उष्ट्रो न पीपरो मृधः । १,१३८.०२

यस्य ते पूषन्सख्ये विपन्यवः क्रत्वा चित्सन्तोऽवसा बुभुज्रिर इति क्रत्वा बुभुज्रिरे । १,१३८.०३ 

ओ षु त्वा ववृतीमहि स्तोमेभिर्दस्म साधुभिः ।

नहि त्वा पूषन्नतिमन्य आघृणे न ते सख्यमपह्नुवे ॥ १,१३८.०४

पूषण्वते मरुत्वते विश्वदेवाय वायवे ।

स्वाहा गायत्रवेपसे हव्यमिन्द्राय कर्तन ॥ १,१४२.१२

श्रिये पूषन्निषुकृतेव देवा नासत्या वहतुं सूर्यायाः ।

वच्यन्ते वां ककुहा अप्सु जाता युगा जूर्णेव वरुणस्य भूरेः ॥ १,१८४.०३

प्रो अश्विनाववसे कृणुध्वं प्र पूषणं स्वतवसो हि सन्ति ।

अद्वेषो विष्णुर्वात ऋभुक्षा अच्छा सुम्नाय ववृतीय देवान् ॥ १,१८६.१०

त्वमग्ने रुद्रो असुरो महो दिवस्त्वं शर्धो मारुतं पृक्ष ईशिषे ।

त्वं वातैररुणैर्यासि शङ्गयस्त्वं पूषा विधतः पासि नु त्मना ॥ २,००१.०६

उत स्य देवो भुवनस्य सक्षणिस्त्वष्टा ग्नाभिः सजोषा जूजुवद्रथम् ।

इळा भगो बृहद्दिवोत रोदसी पूषा पुरन्धिरश्विनावधा पती ॥ २,०३१.०४

सोमापूषणा जनना रयीणां जनना दिवो जनना पृथिव्याः ।

जातौ विश्वस्य भुवनस्य गोपौ देवा अकृण्वन्नमृतस्य नाभिम् ॥ २,०४०.०१

इमौ देवौ जायमानौ जुषन्तेमौ तमांसि गूहतामजुष्टा ।

आभ्यामिन्द्रः पक्वमामास्वन्तः सोमापूषभ्यां जनदुस्रियासु ॥ २,०४०.०२

सोमापूषणा रजसो विमानं सप्तचक्रं रथमविश्वमिन्वम् ।

विषूवृतं मनसा युज्यमानं तं जिन्वथो वृषणा पञ्चरश्मिम् ॥ २,०४०.०३

दिव्यन्यः सदनं चक्र उच्चा पृथिव्यामन्यो अध्यन्तरिक्षे ।

तावस्मभ्यं पुरुवारं पुरुक्षुं रायस्पोषं वि ष्यतां नाभिमस्मे ॥ २,०४०.०४

विश्वान्यन्यो भुवना जजान विश्वमन्यो अभिचक्षाण एति ।

सोमापूषणाववतं धियं मे युवाभ्यां विश्वाः पृतना जयेम ॥ २,०४०.०५

धियं पूषा जिन्वतु विश्वमिन्वो रयिं सोमो रयिपतिर्दधातु ।

अवतु देव्यदितिरनर्वा बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥ २,०४०.०६

इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः ।

विश्वे मम श्रुता हवम् ॥ २,०४१.१५

पूषण्वते ते चकृमा करम्भं हरिवते हर्यश्वाय धानाः ।

अपूपमद्धि सगणो मरुद्भिः सोमं पिब वृत्रहा शूर विद्वान् ॥ ३,०५२.०७

सुकृत्सुपाणिः स्ववां ऋतावा देवस्त्वष्टावसे तानि नो धात् ।

पूषण्वन्त ऋभवो मादयध्वमूर्ध्वग्रावाणो अध्वरमतष्ट ॥ ३,०५४.१२

इन्द्रः सु पूषा वृषणा सुहस्ता दिवो न प्रीताः शशयं दुदुह्रे ।

विश्वे यदस्यां रणयन्त देवाः प्र वोऽत्र वसवः सुम्नमश्याम् ॥ ३,०५७.०२

इयं ते पूषन्नाघृणे सुष्टुतिर्देव नव्यसी ।

अस्माभिस्तुभ्यं शस्यते ॥ ३,०६२.०७

तां जुषस्व गिरं मम वाजयन्तीमवा धियम् ।
वधूयुरिव योषणाम् ॥३.६२.८॥

यो विश्वाभि विपश्यति भुवना सं च पश्यति ।

स नः पूषाविता भुवत् ॥ ३,०६२.०९

कथा महे पुष्टिम्भराय पूष्णे कद्रुद्राय सुमखाय हविर्दे ।

कद्विष्णव उरुगायाय रेतो ब्रवः कदग्ने शरवे बृहत्यै ॥ ४,००३.०७

वामंवामं त आदुरे देवो ददात्वर्यमा ।

वामं पूषा वामं भगो वामं देवः करूळती ॥ ४,०३०.२४

इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषानु यच्छतु ।

सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ॥ ४,०५७.०७

प्र सक्षणो दिव्यः कण्वहोता त्रितो दिवः सजोषा वातो अग्निः ।

पूषा भगः प्रभृथे विश्वभोजा आजिं न जग्मुराश्वश्वतमाः ॥ ५,०४१.०४

प्र तव्यसो नमउक्तिं तुरस्याहं पूष्ण उत वायोरदिक्षि ।

या राधसा चोदितारा मतीनां या वाजस्य द्रविणोदा उत त्मन् ॥ ५,०४३.०९

अग्न इन्द्र वरुण मित्र देवाः शर्धः प्र यन्त मारुतोत विष्णो ।

उभा नासत्या रुद्रो अध ग्नाः पूषा भगः सरस्वती जुषन्त ॥ ५,०४६.०२

इन्द्राग्नी मित्रावरुणादितिं स्वः पृथिवीं द्यां मरुतः पर्वतां अपः ।

हुवे विष्णुं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं भगं नु शंसं सवितारमूतये ॥ ५,०४६.०३

अदत्रया दयते वार्याणि पूषा भगो अदितिर्वस्त उस्रः ।

इन्द्रो विष्णुर्वरुणो मित्रो अग्निरहानि भद्रा जनयन्त दस्माः ॥ ५,०४९.०३

स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः ।

स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना ॥ ५,०५१.११

उतेशिषे प्रसवस्य त्वमेक इदुत पूषा भवसि देव यामभिः ।

उतेदं विश्वं भुवनं वि राजसि श्यावाश्वस्ते सवित स्तोममानशे ॥ ५,०८१.०५

वर्धान्यं विश्वे मरुतः सजोषाः पचच्छतं महिषां इन्द्र तुभ्यम् ।

पूषा विष्णुस्त्रीणि सरांसि धावन्वृत्रहणं मदिरमंशुमस्मै ॥ ६,०१७.११

प्रोतये वरुणं मित्रमिन्द्रं मरुतः कृष्वावसे नो अद्य ।

प्र पूषणं विष्णुमग्निं पुरन्धिं सवितारमोषधीः पर्वतांश्च ॥ ६,०२१.०९

अन्यदद्य कर्वरमन्यदु श्वोऽसच्च सन्मुहुराचक्रिरिन्द्रः ।

मित्रो नो अत्र वरुणश्च पूषार्यो वशस्य पर्येतास्ति ॥ ६,०२४.०५

त्वेषं शर्धो न मारुतं तुविष्वण्यनर्वाणं पूषणं सं यथा शता ।

सं सहस्रा कारिषच्चर्षणिभ्य आं आविर्गूळ्हा वसू करत्सुवेदा नो वसू करत् ॥ ६,०४८.१५

आ मा पूषन्नुप द्रव शंसिषं नु ते अपिकर्ण आघृणे ।

अघा अर्यो अरातयः ॥ ६,०४८.१६

परो हि मर्त्यैरसि समो देवैरुत श्रिया ।

अभि ख्यः पूषन्पृतनासु नस्त्वमवा नूनं यथा पुरा ॥ ६,०४८.१९

पथस्पथः परिपतिं वचस्या कामेन कृतो अभ्यानळ् अर्कम् ।

स नो रासच्छुरुधश्चन्द्राग्रा धियंधियं सीषधाति प्र पूषा ॥ ६,०४९.०८

मिम्यक्ष येषु रोदसी नु देवी सिषक्ति पूषा अभ्यर्धयज्वा ।

श्रुत्वा हवं मरुतो यद्ध याथ भूमा रेजन्ते अध्वनि प्रविक्ते ॥ ६,०५०.०५

वयमु त्वा पथस्पते रथं न वाजसातये ।

धिये पूषन्नयुज्महि ॥ ६,०५३.०१

अभि नो नर्यं वसु वीरं प्रयतदक्षिणम् ।

वामं गृहपतिं नय ॥ ६,०५३.०२

अदित्सन्तं चिदाघृणे पूषन्दानाय चोदय ।

पणेश्चिद्वि म्रदा मनः ॥ ६,०५३.०३

वि पथो वाजसातये चिनुहि वि मृधो जहि ।

साधन्तामुग्र नो धियः ॥ ६,०५३.०४

परि तृन्धि पणीनामारया हृदया कवे ।

अथेमस्मभ्यं रन्धय ॥ ६,०५३.०५

वि पूषन्नारया तुद पणेरिच्छ हृदि प्रियम् ।

अथेमस्मभ्यं रन्धय ॥ ६,०५३.०६

आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे ।

अथेमस्मभ्यं रन्धय ॥ ६,०५३.०७

यां पूषन्ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्ष्याघृणे ।

तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ॥ ६,०५३.०८

या ते अष्ट्रा गोओपशाघृणे पशुसाधनी ।

तस्यास्ते सुम्नमीमहे ॥ ६,०५३.०९

उत नो गोषणिं धियमश्वसां वाजसामुत ।

नृवत्कृणुहि वीतये ॥ ६,०५३.१०

सं पूषन्विदुषा नय यो अञ्जसानुशासति ।

य एवेदमिति ब्रवत् ॥ ६,०५४.०१

समु पूष्णा गमेमहि यो गृहां अभिशासति ।

इम एवेति च ब्रवत् ॥ ६,०५४.०२

पूष्णश्चक्रं न रिष्यति न कोशोऽव पद्यते ।

नो अस्य व्यथते पविः ॥ ६,०५४.०३

यो अस्मै हविषाविधन्न तं पूषापि मृष्यते ।

प्रथमो विन्दते वसु ॥ ६,०५४.०४

पूषा गा अन्वेतु नः पूषा रक्षत्वर्वतः ।

पूषा वाजं सनोतु नः ॥ ६,०५४.०५

पूषन्ननु प्र गा इहि यजमानस्य सुन्वतः ।

अस्माकं स्तुवतामुत ॥ ६,०५४.०६

माकिर्नेशन्माकीं रिषन्माकीं सं शारि केवटे ।

अथारिष्टाभिरा गहि ॥ ६,०५४.०७

शृण्वन्तं पूषणं वयमिर्यमनष्टवेदसम् ।

ईशानं राय ईमहे ॥ ६,०५४.०८

पूषन्तव व्रते वयं न रिष्येम कदा चन ।

स्तोतारस्त इह स्मसि ॥ ६,०५४.०९

परि पूषा परस्ताद्धस्तं दधातु दक्षिणम् ।

पुनर्नो नष्टमाजतु ॥ ६,०५४.१०

पूषणं न्वजाश्वमुप स्तोषाम वाजिनम् ।

स्वसुर्यो जार उच्यते ॥ ६,०५५.०४

आजासः पूषणं रथे निशृम्भास्ते जनश्रियम् ।

देवं वहन्तु बिभ्रतः ॥ ६,०५५.०६

य एनमादिदेशति करम्भादिति पूषणम् ।

न तेन देव आदिशे ॥ ६,०५६.०१

इन्द्रा नु पूषणा वयं सख्याय स्वस्तये ।

हुवेम वाजसातये ॥ ६,०५७.०१

सोममन्य उपासदत्पातवे चम्वोः सुतम् ।

करम्भमन्य इच्छति ॥ ६,०५७.०२

अजा अन्यस्य वह्नयो हरी अन्यस्य सम्भृता ।

ताभ्यां वृत्राणि जिघ्नते ॥ ६,०५७.०३

यदिन्द्रो अनयद्रितो महीरपो वृषन्तमः ।

तत्र पूषाभवत्सचा ॥ ६,०५७.०४

तां पूष्णः सुमतिं वयं वृक्षस्य प्र वयामिव ।

इन्द्रस्य चा रभामहे ॥ ६,०५७.०५

उत्पूषणं युवामहेऽभीशूंरिव सारथिः ।

मह्या इन्द्रं स्वस्तये ॥ ६,०५७.०६

शुक्रं ते अन्यद्यजतं ते अन्यद्विषुरूपे अहनी द्यौरिवासि ।

विश्वा हि माया अवसि स्वधावो भद्रा ते पूषन्निह रातिरस्तु ॥ ६,०५८.०१

अजाश्वः पशुपा वाजपस्त्यो धियञ्जिन्वो भुवने विश्वे अर्पितः ।

अष्ट्रां पूषा शिथिरामुद्वरीवृजत्संचक्षाणो भुवना देव ईयते ॥ ६,०५८.०२

यास्ते पूषन्नावो अन्तः समुद्रे हिरण्ययीरन्तरिक्षे चरन्ति ।

ताभिर्यासि दूत्यां सूर्यस्य कामेन कृत श्रव इच्छमानः ॥ ६,०५८.०३

पूषा सुबन्धुर्दिव आ पृथिव्या इळस्पतिर्मघवा दस्मवर्चाः ।

यं देवासो अददुः सूर्यायै कामेन कृतं तवसं स्वञ्चम् ॥ ६,०५८.०४

ब्राह्मणासः पितरः सोम्यासः शिवे नो द्यावापृथिवी अनेहसा ।

पूषा नः पातु दुरितादृतावृधो रक्षा माकिर्नो अघशंस ईशत ॥ ६,०७५.१०

शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या ।

शमिन्द्रासोमा सुविताय शं योः शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ ॥ ७,०३५.०१

शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वर्काः ।

शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शं वस्तु वायुः ॥ ७,०३५.०९

प्र वो महीमरमतिं कृणुध्वं प्र पूषणं विदथ्यं न वीरम् ।

भगं धियोऽवितारं नो अस्याः सातौ वाजं रातिषाचं पुरन्धिम् ॥ ७,०३६.०८

प्र वावृजे सुप्रया बर्हिरेषामा विश्पतीव बीरिट इयाते ।

विशामक्तोरुषसः पूर्वहूतौ वायुः पूषा स्वस्तये नियुत्वान् ॥ ७,०३९.०२

मात्र पूषन्नाघृण इरस्यो वरूत्री यद्रातिषाचश्च रासन् ।

मयोभुवो नो अर्वन्तो नि पान्तु वृष्टिं परिज्मा वातो ददातु ॥ ७,०४०.०६

प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना ।

प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्रं हुवेम ॥ ७,०४१.०१

दधिक्रां वः प्रथममश्विनोषसमग्निं समिद्धं भगमूतये हुवे ।

इन्द्रं विष्णुं पूषणं ब्रह्मणस्पतिमादित्यान्द्यावापृथिवी अपः स्वः ॥ ७,०४४.०१

प्र पूषणं वृणीमहे युज्याय पुरूवसुम् ।

स शक्र शिक्ष पुरुहूत नो धिया तुजे राये विमोचन ॥ ८,००४.१५

वेमि त्वा पूषन्नृञ्जसे वेमि स्तोतव आघृणे ।

न तस्य वेम्यरणं हि तद्वसो स्तुषे पज्राय साम्ने ॥ ८,००४.१७

परा गावो यवसं कच्चिदाघृणे नित्यं रेक्णो अमर्त्य ।

अस्माकं पूषन्नविता शिवो भव मंहिष्ठो वाजसातये ॥ ८,००४.१८

आ प्र यात मरुतो विष्णो अश्विना पूषन्माकीनया धिया ।

इन्द्र आ यातु प्रथमः सनिष्युभिर्वृषा यो वृत्रहा गृणे ॥ ८,०२७.०८

ऐतु पूषा रयिर्भगः स्वस्ति सर्वधातमः ।

उरुरध्वा स्वस्तये ॥ ८,०३१.११

पूषा विष्णुर्हवनं मे सरस्वत्यवन्तु सप्त सिन्धवः ।

आपो वातः पर्वतासो वनस्पतिः शृणोतु पृथिवी हवम् ॥ ८,०५४.०४

स नो भगाय वायवे पूष्णे पवस्व मधुमान् ।

चारुर्मित्रे वरुणे च ॥ ९,०६१.०९

अविता नो अजाश्वः पूषा यामनियामनि ।

आ भक्षत्कन्यासु नः ॥ ९,०६७.१०

आ नः पूषा पवमानः सुरातयो मित्रो गच्छन्तु वरुणः सजोषसः ।

बृहस्पतिर्मरुतो वायुरश्विना त्वष्टा सविता सुयमा सरस्वती ॥ ९,०८१.०४

अयं पूषा रयिर्भगः सोमः पुनानो अर्षति ।

पतिर्विश्वस्य भूमनो व्यख्यद्रोदसी उभे ॥ ९,१०१.०७

परि प्र धन्वेन्द्राय सोम स्वादुर्मित्राय पूष्णे भगाय ॥ ९,१०९.०१

पूषा त्वेतश्च्यावयतु प्र विद्वाननष्टपशुर्भुवनस्य गोपाः ।

स त्वैतेभ्यः परि ददत्पितृभ्योऽग्निर्देवेभ्यः सुविदत्रियेभ्यः ॥ १०,०१७.०३

आयुर्विश्वायुः परि पासति त्वा पूषा त्वा पातु प्रपथे पुरस्तात् ।

यत्रासते सुकृतो यत्र ते ययुस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु ॥ १०,०१७.०४

पूषेमा आशा अनु वेद सर्वाः सो अस्मां अभयतमेन नेषत् ।

स्वस्तिदा आघृणिः सर्ववीरोऽप्रयुच्छन्पुर एतु प्रजानन् ॥ १०,०१७.०५

प्रपथे पथामजनिष्ट पूषा प्रपथे दिवः प्रपथे पृथिव्याः ।

उभे अभि प्रियतमे सधस्थे आ च परा च चरति प्रजानन् ॥ १०,०१७.०६

प्र ह्यच्छा मनीषा स्पार्हा यन्ति नियुतः ।

प्र दस्रा नियुद्रथः पूषा अविष्टु माहिनः ॥ १०,०२६.०१

स वेद सुष्टुतीनामिन्दुर्न पूषा वृषा ।

अभि प्सुरः प्रुषायति व्रजं न आ प्रुषायति ॥ १०,०२६.०३

मंसीमहि त्वा वयमस्माकं देव पूषन् ।

मतीनां च साधनं विप्राणां चाधवम् ॥ १०,०२६.०४

आ ते रथस्य पूषन्नजा धुरं ववृत्युः ।

विश्वस्यार्थिनः सखा सनोजा अनपच्युतः ॥ १०,०२६.०८

अस्माकमूर्जा रथं पूषा अविष्टु माहिनः ।

भुवद्वाजानां वृध इमं नः शृणवद्धवम् ॥ १०,०२६.०९

प्र मा युयुज्रे प्रयुजो जनानां वहामि स्म पूषणमन्तरेण ।

विश्वे देवासो अध मामरक्षन्दुःशासुरागादिति घोष आसीत् ॥ १०,०३३.०१

त आदित्या आ गता सर्वतातये वृधे नो यज्ञमवता सजोषसः ।

बृहस्पतिं पूषणमश्विना भगं स्वस्त्यग्निं समिधानमीमहे ॥ १०,०३५.११

पुनर्नो असुं पृथिवी ददातु पुनर्द्यौर्देवी पुनरन्तरिक्षम् ।

पुनर्नः सोमस्तन्वं ददातु पुनः पूषा पथ्यां या स्वस्तिः ॥ १०,०५९.०७

नरा वा शंसं पूषणमगोह्यमग्निं देवेद्धमभ्यर्चसे गिरा ।

सूर्यामासा चन्द्रमसा यमं दिवि त्रितं वातमुषसमक्तुमश्विना ॥ १०,०६४.०३

प्र वो वायुं रथयुजं पुरन्धिं स्तोमैः कृणुध्वं सख्याय पूषणम् ।

ते हि देवस्य सवितुः सवीमनि क्रतुं सचन्ते सचितः सचेतसः ॥ १०,०६४.०७

अग्निरिन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा वायुः पूषा सरस्वती सजोषसः ।

आदित्या विष्णुर्मरुतः स्वर्बृहत्सोमो रुद्रो अदितिर्ब्रह्मणस्पतिः ॥ १०,०६५.०१

सरस्वान्धीभिर्वरुणो धृतव्रतः पूषा विष्णुर्महिमा वायुरश्विना ।

ब्रह्मकृतो अमृता विश्ववेदसः शर्म नो यंसन्त्रिवरूथमंहसः ॥ १०,०६६.०५

यदश्विना पृच्छमानावयातं त्रिचक्रेण वहतुं सूर्यायाः ।

विश्वे देवा अनु तद्वामजानन्पुत्रः पितराववृणीत पूषा ॥ १०,०८५.१४

पूषा त्वेतो नयतु हस्तगृह्याश्विना त्वा प्र वहतां रथेन ।

गृहान्गच्छ गृहपत्नी यथासो वशिनी त्वं विदथमा वदासि ॥ १०,०८५.२६

तां पूषञ्छिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या वपन्ति ।

या न ऊरू उशती विश्रयाते यस्यामुशन्तः प्रहराम शेपम् ॥ १०,०८५.३७

प्र नः पूषा चरथं विश्वदेव्योऽपां नपादवतु वायुरिष्टये ।

आत्मानं वस्यो अभि वातमर्चत तदश्विना सुहवा यामनि श्रुतम् ॥ १०,०९२.१३

ते घा राजानो अमृतस्य मन्द्रा अर्यमा मित्रो वरुणः परिज्मा ।

कद्रुद्रो नृणां स्तुतो मरुतः पूषणो भगः ॥ १०,०९३.०४

बृहस्पते प्रति मे देवतामिहि मित्रो वा यद्वरुणो वासि पूषा ।

आदित्यैर्वा यद्वसुभिर्मरुत्वान्स पर्जन्यं शन्तनवे वृषाय ॥ १०,०९८.०१

वंसगेव पूषर्या शिम्बाता मित्रेव ऋता शतरा शातपन्ता ।

वाजेवोच्चा वयसा घर्म्येष्ठा मेषेवेषा सपर्या पुरीषा ॥ १०,१०६.०५

अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।

अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥ १०,१२५.०२

सूर्यरश्मिर्हरिकेशः पुरस्तात्सविता ज्योतिरुदयां अजस्रम् ।

तस्य पूषा प्रसवे याति विद्वान्सम्पश्यन्विश्वा भुवनानि गोपाः ॥ १०,१३९.०१

       

 

अथ गृह्णाति । देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् अग्नये जुष्टं गृह्णामीति सविता वै देवानां प्रसविता तत्सवितृप्रसूत एवैतद्गृह्णाति अश्विनोर्बाहुभ्यामित्यश्विनावध्वर्यू पूष्णो हस्ताभ्यामिति पूषा भागदुघोऽशनं पाणिभ्यामुपनिधाता सत्यं देवा अनृतम्मनुष्यास्तत्सत्येनैवैतद्गृह्णाति - १.१.२.[१७]

 

अथ सारस्वतश्चरुर्भवति । पौष्णश्चरुर्योषा वै सरस्वती वृषा पूषा तत्पुनर्मिथुनं प्रजननमेतस्माद्वा – माश २.५.१.[११]

 

सरस्वत्यै पूष्णेऽग्नये स्वाहेति । वाग्वै सरस्वती वाग्यज्ञः पशवो वै पूषा पुष्टिर्वै पूषा पुष्टिः पशवः पशवो हि यज्ञस्तद्यदेवात्र - ३.१.४.[९]

 

 

सरस्वत्यै पूष्णेऽग्नये स्वाहेति । वाग्वै सरस्वती वाग्यज्ञः सास्यैषात्मन्देवताधीता भवति वाक्पशवो वै पूषा पुष्टिर्वै पूषा पुष्टिः पशवः पशवो हि यज्ञस्तेऽस्यैत आत्मन्पशव आधीता भवन्ति तद्यदस्यैता आत्मन्देवता आधीता भवन्ति - ३.१.४.[१४]

 

पूषाध्वनस्पात्विति । इयं वै पृथिवी पूषा यस्य वा इयमध्वन्गोप्त्री भवति तस्य न का चन ह्वला भवति तस्मादाह पूषाध्वनस्पात्विति - ३.२.४.[१९]

 

 

अथ पौष्णम् । पशवो वै पूषा पशुभिरेव तत्प्रजापतिः पुनरात्मानमाप्याययत पशव एनमुपसमावर्तन्त पशूननुकानात्मनोऽकुरुत - ३.९.१.[१०]

 

तमादत्ते । देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यामाददे रावासीति सविता वै देवानां प्रसविता तत्सवितृप्रसूत एवैनमेतदादत्ते ऽश्विनोर्बाहुभ्यामित्यश्विनावध्वर्यू तत्तयोरेव बाहुभ्यामादत्ते न स्वाभ्याम् पूष्णो हस्ताभ्यामिति पूषा भागदुघस्तत्तस्यैव हस्ताभ्यामादत्ते न स्वाभ्यां वज्रो वा एष तस्य न मनुष्यो भर्ता तमेताभिर्देवताभिरादत्ते - ३.९.४.[३]

 

प्र नः । यच्छत्वर्यमा प्र पूषा प्र बृहस्पतिः प्र वाग्देवी ददातु नः स्वाहेति - ५.२.२.[११]

 

 

अथ यत्पौष्णः । चरुर्भवति यानेवास्मा अग्निर्दाता पशून्ददाति तेष्वेवैतदन्ततः प्रतितिष्ठति यद्वै पशुमान्कर्म चिकीर्षति शक्नोति वै तत्कर्तुं तत्पशूनेवैतदुपैति पशुमान्त्सूया इति तस्य श्यामो गौर्दक्षिणा स हि पौष्णो यच्छ्यामो द्वे वै श्यामस्य रूपे शुक्लं चैव लोम कृष्णं च द्वन्द्वं वै मिथुनं प्रजननं वै पूषा पशवो हि पूषा पशवो हि प्रजननम् मिथुनमेवैतत्प्रजननं क्रियते तस्माच्छ्यामो गौर्दक्षिणा - ५.२.५.[८]

 

अथ श्वो भूते । भागदुघस्य गृहान्परेत्य पौष्णं चरुं निर्वपति पूषा वै देवानां भागदुघ एष वा एतस्य भागदुघो भवति तस्मात्पौष्णो भवत्येतद्वा अस्यैकं रत्नं यद्भागदुघस्तस्मा एवैतेन सूयते तं स्वमनपक्रमिणं कुरुते तस्य श्यामो गौर्दक्षिणा तस्यासावेव बन्धुर्योऽसौ त्रिषंयुक्तेषु - ५.३.१.[९]

 

स जुहोति । यानि पुरस्तादभिषेकस्य जुहोत्यग्नये स्वाहेति तेजो वा अग्निस्तेजसैवैनमेतदभिषिञ्चति सोमाय स्वाहेति क्षत्रं वै सोमः क्षत्रेणैवैनमेतदभिषिञ्चति सवित्रे स्वाहेति सविता वै देवानां प्रसविता सवितृप्रसूत एवैनमेतदभिषिञ्चति सरस्वत्यै स्वाहेति वाग्वै सरस्वती वाचैवैनमेतदभिषिञ्चति पूष्णे स्वाहेति पशवो वै पूषा पशुभिरेवैनमेतदभिषिञ्चति बृहस्पतये स्वाहेति ब्रह्म वै - ५.३.५.[८]

 

आवित्तः पूषा विश्ववेदा इति । पशवो वै पूषा तदेनं पशुभ्य आवेदयति तेऽस्मै सवमनुमन्यन्ते तैरनुमतः सूयते - ५.३.५.[३५]

 

अथ पौष्णं चरुं निर्वपति । पशवो वै पूषा पशुभिरेव तद्वरुणो ऽनुसमसर्पत्तथो एवैष एतत्पशुभिरेवानुसंसर्पति तत्रैकं पुण्डरीकम् प्रयच्छति - ५.४.५.[९]

 

अथ रासभम् । उर्वन्तरिक्षं वीहि स्वस्तिगव्यूतिरभयानि कृण्वन्निति यथैव यजुस्तथा बन्धुः पूष्णा सयुजा सहेतीयं वै पूषानया सयुजा सहेत्येतत्तदेनं रासभेनान्विच्छति - ६.३.२.[८]

 

त्रयोविंशत्यास्तुवतेति । दश हस्त्या अङ्गुलयो दश पाद्या द्वे प्रतिष्ठे आत्मा त्रयोविंशस्तेनैव तदस्तुवत क्षुद्राः पशवोऽसृज्यन्तेति क्षुद्राः पशवो ऽत्रासृज्यन्त पूषाधिपतिरासीदिति पूषाधिपतिरासीत् - ८.४.३.[१४]

 

सूर्यरश्मिर्हरिकेशः पुरस्तात् । सविता ज्योतिरुदयां अजस्रमित्यसौ वा आदित्य एषो ऽग्निः स एष सूर्यरश्मिर्हरिकेशः पुरस्तात्सवितैतज्ज्योतिरुद्यच्छत्यजस्रं तस्य पूषा प्रसवे याति विद्वानिति पशवो वै पूषा त एतस्य प्रसवे प्रेरते सम्पश्यन्विश्वा भुवनानि गोपा इत्येष वा इदं सर्वं सम्पश्यत्येष उ एवास्य सर्वस्य भुवनस्य गोप्ताः - ९.२.३.[१२]

 

तस्या अग्निरन्नाद्यमादत्त  सोमो राज्यं वरुणः साम्राज्यं मित्रः क्षत्रमिन्द्रो बलं बृहस्पतिर्ब्रह्मवर्चसं सविता राष्ट्रं पूषा भगं सरस्वती पुष्टिं त्वष्टा रूपाणि - ११.४.३.[३]

 

तानेतयानुवाक्ययान्ववदत्  अग्निः सोमो वरुणो मित्र इन्द्रो बृहस्पतिः सविता यः सहस्री पूषा नो गोभिरवसा सरस्वती त्वष्टा रूपाणि समनक्तु यज्ञैरिति ते प्रत्युपातिष्ठन्त -- ११.४.३.[६]

 

 

तानेतया याज्यया  परस्तात्प्रतिलोमं प्रत्यैत्त्वष्टा रूपाणि ददती सरस्वती पूषा भगं सविता मे ददातु  बृहस्पतिर्दददिन्द्रो बलं मे मित्रं क्षत्रं वरुणः सोमो अग्निरिति ते पुनर्दानायाध्रियन्त - ११.४.३.[७]

 

पूषा भगं भगपतिः  भगमस्मिन्यज्ञे मयि दधातु स्वाहेत्याहुतिमेवादाय पूषोदक्रामत्पुनरस्यै भगमददात् - ११.४.३.[१५]

 

अथ यदि सोमक्रयण्यां किंचिदापद्येत। पूष्णे स्वाहा इति जुहुयात्। पूषा हि स तर्हि भवति। अप पाप्मानं हते। उपैनं यज्ञो नमति॥१२.६.१.८

पूष्णे स्वाहा  पूष्णे प्रपथ्याय स्वाहा पूष्णे नरंधिषाय स्वाहेति पशवो वै पूषा पशुभिरेवैनमुद्यच्छति - १३.१.८.[६]

 

सौमापौष्णं श्यामं नाभ्याम्  प्रतिष्ठामेव तां कुरुत इयं वै पूषास्यामेव प्रतितिष्ठति - १३.२.२.[६]

 

अथ पौष्णीं निर्वपति  पूषा वै पथीनामधिपतिरश्वायैवैतत्स्वस्त्ययनं करोत्यथो इयं वै पूषेमामेवास्मा एतद्गोप्त्रीं करोति तस्य हि नार्तिरस्ति न ह्वला यमियमध्वन्गोपायतीमामेवास्मा एतद्गोप्त्रीं करोति - १३.४.१.[१४]

 

अथ वत्समुपार्जति  पूषासीत्ययं वै पूषा योयं पवत एष हीदं सर्वम् पुष्यत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह पूषासीति - १४.२.१.[९]

 

घर्मप्रचरणम् -- स्वाहा पूष्णे शरस इति  अयं वै पूषा योऽयं पवत एष हीदं सर्वं पुष्यत्येष उ प्राणः प्राणमेवास्मिन्नेतद्दधाति तस्मादाह स्वाहा पूष्णे शरस इत्यवरं स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्धुर्हुत्वा मध्यमे परिधा उपश्रयति - १४.२.२.[३२]

 

 

तेन हैतेन मौण्डिभ उदन्युर् ईज उदन्यूनां राजा। तद् ध यवक्रीः सौमस्तम्बिर् आस्तावं प्रति निषसाद। तस्य हायं पूषा रयिर् भग इत्य् एताः प्रतिपदश् चक्रुः। स होवाच  -  छंवट् मासा मौण्डिभाप प्राणान् अरात्सीर् इति। - जै.ब्रा.२.२६९

अयं पूषा रयिर् भगस् सोमः पुनानो अर्षति।     पतिर् विश्वस्य भूमनो व्य् अख्यद् रोदसी उभे॥ इत्य् उभयोर् एवाह्नोस् समारम्भाय। यथा ह वा इदं श्रमणं व्यवलम्बमानं – जै.ब्रा. ३.३१

शुचिं नु स्तोमं नवजातं अद्येन्द्राग्नी वृत्रहणा जुषेथाम् ॥ उभा हि वाम्̇ सुहवा जोहवीमि ता वाजम्̇ सद्य उशते धेष्ठा ॥ वयम् उ त्वा पथस् पते रथं न वाजसातये । धिये पूषन्न् अयुज्महि ॥ पथस्पथः परिपतिं वचस्या कामेन कृतो अभ्य् आनड् अर्कम् । स नो रासच् छुरुधश्चन्द्राग्रा धियं धियम्̇ सीषधाति प्र पूषा ॥ - तै.सं. १.१.१४.२

 

सोमापूषणा जनना रयीणां जनना दिवो जनना पृथिव्याः । जातौ विश्वस्य भुवनस्य गोपौ देवा अकृण्वन्न् अमृतस्य नाभिम् ॥

इमौ देवौ जायमानौ जुषन्तेमौ तमाम्̇सि गूहताम् अजुष्टा । आभ्याम् इन्द्रः पक्वम् आमास्व् अन्तः सोमापूषभ्यां जनद् उस्रियासु ॥ - तै.सं. १.८.२२.५

 

सोमापौष्णं त्रैतम् आ लभेत पशुकामः । द्वौ वा अजायै स्तनौ । नानैव द्वाव् अभि जायेते ऊर्जम् पुष्टिं तृतीयः । सोमापूषणाव् एव स्वेन भागधेयेनोप धावति ।    ताव् एवास्मै पशून् प्र जनयतः । सोमो वै रेतोधाः पूषा पशूनाम् प्रजनयिता।    सोम एवास्मै रेतो दधाति पूषा पशून् प्र जनयति । - तै.सं. २.१.१.६

 

पौष्णम्̇ श्यामम् आ लभेतान्नकामः ।    अन्नं वै पूषा ।   पूषणम् एव स्वेन भागधेयेनोप धावति ।    स एवास्मै  - तै.सं. २.१.६.१

 

पौष्णं चरुम् अनु निर् वपेत् । पूषा वा इन्द्रियस्य वीर्यस्यानुप्रदाता । पूषणम् एव – तै.सं. २.२.१.४

 

यः पशुकामः स्यात् तस्मा एतम्̇ सोमापौष्णं गार्मुतं चरुं निर् वपेत् । सोमापूषणाव् एव स्वेन भागधेयेनोप धावति । ताव् एवास्मै पशून् प्र जनयतः । सोमो वै रेतोधाः । पूषा पशूनाम् प्रजनयिता । सोम एवास्मै रेतो दधाति पूषा पशून् प्र जनयति ॥ तै.सं. २.४.४.३

 

*अदित्यै भागोसि पूष्ण आधिपत्यं – तै.सं. ४.३.९.१

 

*हरिवाँ इन्द्रो धाना अत्तु पूषण्वान्करम्भं सरस्वतीवान्भारतीवान्परिवाप इन्द्रस्यापूप इति हविष्पंक्त्या यजत्यृक्सामे वा इन्द्रस्य हरी पशवः पूषान्नं करम्भः सरस्वतीवान्भारतीवानिति – ऐ.ब्रा. २.२४

*एतामासन्दीं समभरन्नृचं नाम तस्यै बृहच्च रथंतरं च पूर्वौ पादावकुर्वन्वैरूपं च वैराजं चापरौ शाक्वररैवते शीर्षण्ये नौधसं च कालेयं चानूच्ये ऋचः प्राचीनातानान्सामानि तिरश्चीनवायान्यजूंष्यतीकाशान्यश आस्तरणं श्रियमुपबर्हणं तस्यै सविता च बृहस्पतिश्च पूर्वौ पादावधारयतां वायुश्च पूषा चापरौ मित्रावरुणौ शीर्षण्ये अश्विनावनूच्ये – ऐ.ब्रा. ८.१२

*बृहच्च ते रथंतरं च पूर्वौ पादौ भवतां वैरूपं च वैराजं चापरौ शाक्वररैवते शीर्षण्ये नौधसं च कालेयं चानूच्ये ऋचः प्राचीनातानाः सामानि तिरश्चीनवाया यजूंष्यतीकाशा यश आस्तरणं श्रीरुपबर्हणं सविता च ते बृहस्पतिश्च पूर्वौ पादौ धारयतां वायुश्च पूषा चापरौ मित्रावरुणौ शीर्षण्ये अश्विनावनूच्ये – ऐ.ब्रा. ८.१७

 

*पूष्णो रेवती ।    गावः परस्ताद् वत्सा अवस्तात् । - तै.ब्रा. १.५.१.५

 

 

*सप्तदशस्तोम के कारण आदित्य की तेजोहानि की चिकित्सा -- सो ऽब्रवीत् । सप्तदशेन ह्रियमाणो व्यलेशिषि । भिषज्यत मा_इति । तम् अश्विनौ धानाभिर् अभिषज्यताम् । पूषा करम्भेण । भारती परिवापेण । मित्रावरुणौ पयस्यया । तद् आहुः । यद् अश्विभ्यां धानाः । पूष्णः करम्भः । भारत्यै परिवापः ।  मित्रावरुणयोः पयस्याथ । कस्माद् एतेषाम्̐ हविषाम् इन्द्रम् एव यजन्ति_इति । तै.ब्रा. १.५.११.२

 

*राजसूये वैश्वदेव -- सोमो रेतो ऽदधात् । सविता प्राजनयत् । सरस्वती वाचम् अदधात् । पूषा_अपोषयत् । ते वा एते त्रिः संवत्सरस्य प्रयुज्यन्ते । ये देवाः पुष्टिपतयः  - तै.ब्रा.  १.६.२.२

 

*सो अग्निरब्रवीत्। माम् अग्रे यजत । मया मुखेन_असुराञ् जेष्यथ_इति । मां द्वितीयम् इति सोमो ऽब्रवीत् । मया राज्ञा जेष्यथ_इति । मां तृतीयम् इति सविता । मया प्रसूता जेष्यथ_इति । मां चतुर्थीम् इति सरस्वती । इन्द्रियं वो ऽहं धास्यामि_इति । मां पञ्चमम् इति पूषा । मया प्रतिष्ठया जेष्यथ_इति ।  - तै.ब्रा. १.६.२.६

 

 

*ते ऽग्निना मुखेन_असुरान् अजयन् । सोमेन राज्ञा । सवित्रा प्रसूताः । सरस्वती_इन्द्रियम् अदधात् । पूषा प्रतिष्ठा_आसीत् । ततो वै देवा व्यजयन्त । -------पशवो वा उत्तरवेदी  - तै.ब्रा. १.६.२.७

 

*राजसूये रत्निनां हविः – पौष्णं चरुं भागदुघस्य गृहे। अन्नं वै पूषा ।  अन्नम् एव_अवरुन्धे ।   - तै.ब्रा. १.७.३.६

*राजसूये जलसंस्कारः --  अग्निर् एवैनं गार्हपत्येन_अवति । इन्द्र इन्द्रियेण । पूषा पशुभिः । मित्रावरुणौ प्राणापानाभ्याम् ।   - तै.ब्रा. १.७.६.६

*पूषा गा अन्वेतु नः । पूषा रक्षत्व् अर्वतः । पूषा वाजम्̐ सनोतु नः ।  पूषा_इमा आशा अनुवेद सर्वाः । सो अस्माँ अभयतमेन नेषत्। स्वस्तिदा अघृणिः सर्ववीरः। अप्रयुच्छन्पुर एतु प्रजानन्।  - तै.ब्रा. २.४.१.५

*अगृभीताः पशवः सन्तु सर्वे । अग्निः सोमो वरुणो मित्र इन्द्रः ।  बृहस्पतिः सविता यः सहस्री । पूषा नो गोभिर् अवसा सरस्वती । त्वष्टा रूपाणि समनक्तु यज्ञः । त्वष्टा रूपाणि दधती सरस्वती ।  पूषा भगम्̐ सविता नो ददातु । बृहस्पतिर् ददद् इन्द्रः सहस्रम् । मित्रो दाता वरुणः सोमो अग्निः ।  - तै.ब्रा. २.५.३.११

 

*अश्विना यज्ञमागतम्। दाशुषः पुरुदम्̐ससा ।    पूषा रक्षतु नो रयिम् ।    इमं यज्ञम् अश्विना वर्धयन्ता । इमौ रयिं यजमानाय धत्तम् । इमौ पशून् रक्षतां विश्वतो नः । पूषा नः पातु सदम् अप्रयुच्छन् । प्र ते महे सरस्वति । सुभगे वाजिनीवति । सत्यवाचे भरे मतिम् । इदं ते हव्यं घृतवत् सरस्वति । सत्यवाचे प्रभरेमा हवीम्̐षि ।   - तै.ब्रा. २.५.४.१७

 

*पूषा विशां विट्पतिः विशम् अस्मिन् यज्ञे यजमानाय ददातु स्वाहा । सरस्वती पुष्टिः पुष्टिपत्नी ।  पुष्टिम् अस्मिन् यज्ञे यजमानाय ददातु स्वाहा ।  त्वष्टा पशूनां मिथुनानाम्̐ रूपकृद् रुपपतिः ।  रूपेण_अस्मिन् यज्ञे यजमानाय पशून् ददातु स्वाहा ।   - तै.ब्रा. २.५.७.४

 

*यद् आग्नेयो भवति । अग्निमुखा ह्य्  ऋद्धिः । अथ यत् पौष्णः । पुष्टिर् वै पूषा । पुष्टिर् वैश्यस्य । पुष्टिम् एव_अवरुन्धे । प्रसवाय सावित्रः । अथ यत् त्वाष्ट्रः । त्वष्टा हि रूपाणि विकरोति ।  - तै.ब्रा. २.७.२.५

*हविषः पुरोनुवाक्या -- धियं पूषा जिन्वतु विश्वमिन्वः । रयिम्̐ सोमो रयिपतिर् दधातु । अवतु देव्य् अदितिर् अनर्वा । बृहद् वदेम विदथे सुवीराः ।  - तै.ब्रा. २.८.१.६

 

पौष्णं श्याममालभेतान्नकामः इत्यस्य पशोः सूक्ते तिसृणां ऋचां प्रतीकानि --   यस् ते पूषन् नावो अन्तः, ।

  {न्}   शुक्रं ते अन्यत्, {ओ} पूषा_इमा आशाः, ।

 पुरोडाशस्य याज्या --  पप्रथे पथाम् अजनिष्ट पूषा ।

 

*प्रपथे दिवः प्रपथे पृथिव्याः । उभे अभि प्रियतमे सधस्थे । आ च परा च चरति प्रजानन् ।

 हविषः पुरोनुवाक्या --   पूषा सुबन्धुर् दिव आ पृथिव्याः । इडस् पतिर् मघवा दस्मवर्चाः । तं देवासो अददुः सूर्यायै । कामेन कृतं तवसम्̐ स्वञ्चम् ।

*हविषो याज्या--   अजाश्वः पशुपा वाजवस्त्यः । धियंजिन्वो  विश्वे भुवने अर्पितः । अष्ट्रां पूषा शिथिराम् उद्वरीवृजत् ।  पूषा रेवत्य् अन्वेति पन्थाम् ।   पुष्टिपती पशुपा वाजवस्त्यौ ।  - तै.ब्रा. २.८.५.४

 

 

*इमानि हव्या प्रयता जुषाणा । सुगैर् नो यानैर् उपयातां यज्ञम् ।    क्षुद्रान् पशून् रक्षतु रेवती नः । गावो नो अश्वाम्̐ अन्वेतु पूषा । अन्नम्̐ रक्षन्तौ बहुधा विरूपम् । वाजम्̐ सनुतां यजमानाय यज्ञम् ।  - तै.ब्रा.  ३.१.२.२२

 

*पूषा वा अकामयत । पशुमान्त् स्याम् इति । स एतं पूष्णे रेवत्यै चरुं निरवपत् । ततो वै स पशुमान् अभवत् ।   - तै.ब्रा. ३.१.५.५३

*पूषा ते ग्रन्थिं ग्रथ्नात्व् इत्य् आह । पुष्टिम् एव यजमाने दधाति ।  - तै.ब्रा.  ३.२.२.८

 

*बह्वीर् भवन्तीर् उप जायमानाः ।  इह व इन्द्रो रमयतु गावः । पूषा स्थ । अयक्ष्मा वः प्रजया सम्̐सृजामि । - तै.ब्रा. ३.७.४.१५

 

*अदित्यै स्वाहा_अदित्यै मह्यै स्वाहा_अदित्यै सुमृडीकायै स्वाहा_इत्य् आह । इयं वा अदितिः । अस्या एवैनं प्रतिष्ठाय_उद्यच्छते । सरस्वत्यै स्वाहा सरस्वत्यै बृहत्यै स्वाहा सरस्वत्यै पावकायै स्वाहा_इत्य् आह । वाग् वै सरस्वती । वाचा_एवैनम् उद्यच्छते । पूष्णे स्वाहा पूष्णे प्रपथ्याय स्वाहा पूष्णे नरंधिषाय स्वाहा_इत्य् आह । पशवो वै पूषा । पशुभिर् एवैनम् उद्यच्छते । - तै.ब्रा. ३.८.११.२

*तस्मात् पूर्वाग्निं पुरस्तात् स्थापयन्ति । पौष्णम् अन्वञ्चम् । अन्नं वै पूषा । तस्मात् पूर्वाग्नाव् आहार्यम् आहरन्ति । ऐन्द्रापौष्णम् उपरिष्टात् । ऐन्द्रो वै राजन्यो ऽन्नं पूषा । अन्नाद्येन_एवैनम् उभयतः परिगृह्णाति ।  - तै.ब्रा. ३.८.२३.२

*अश्वमेधे द्वितीयमहस्तृतीयं च – अश्वस्य त्वग्दोषनिमित्तं प्रायश्चित्तं -- पौष्णं चरुं निर्वपेत् । यदि श्लोणः स्यात् । पूषा वै श्लोण्यस्य भिषक् । स एवैनं भिषज्यति । अश्लोणो हैव भवति । - तै.ब्रा. ३.९.१७.२

 

*त्वम् अग्ने रुद्रो असुरो महो दिवः । त्वम्̐ शर्धो मारुतं पृक्ष ईशिषे । त्वं वातैर् अरुणैर् यासि शङ्गयः । त्वं पूषा विधतः पासि नु त्मना । देवा देवेषु श्रयध्वम् ।  - तै.ब्रा. ३.११.२.१

 

सौमापौषं पशुमुपालभ्यमालभेरन् ।   सोमो वै ब्राह्मणः पशवः पूषा स्वामेव तद्देवतां पशुभिर्बंहयन्ते त्वचमेवाक्रत – तांब्रा २३.१६

मित्रविन्दा महावैराजी  १  अग्निः सोमो वरुणो मित्र इन्द्रो  बृहस्पतिः सविता पूषा सरस्वती त्वष्टेत्येकप्रदानाः  २  अग्निः सोमो वरुणो मित्र इन्द्रो  बृहस्पतिः सविता यः सहस्री  ।  पूषा नो गोभिरवसा सरस्वती त्वष्टा रूपेण समनक्तु यज्ञं  ३  प्रतिलोममादिश्य यजद् ये यजामहे त्वष्टारं सरस्वतीं पूषणं सवितारं बृहस्पतिमिन्द्रं  मित्रं वरुणं सोममग्निं त्वष्टा रूपाणि दधती सरस्वती भगं पूषा सविता नो ददातु   ।  बृहस्पतिर्दददिन्द्रः सहस्रं मित्रो दाता वरुणः सोमो अग्निरिति  ।४ । अष्टौ वैराजतन्त्राः  ।५।  तासामाद्याः षडेकहविषः – आश्व.श्रौ.सू. २.११ 

 

 

 

ज्योतिष्टोमे सवनीयपशुप्रकरणम् -- इन्द्रा नु पूषणेत्यैन्द्रापौष्णस्य । सोमापूषणेति सोमापौष्णस्य  २ – शां.श्रौ. ६.११

 

 

संनह्यतीन्द्राण्यै संनहनमिति ग्रन्थिं करोति पूषा ते ग्रन्थिं ग्रथ्नात्विति – बौ.श्रौ.सू. १.२

वायुरस्यैड इति घर्मदुघो वत्समभिमृशत्यथैनमुपावसृजति पूषा त्वोपावसृजत्वश्विभ्यां प्रदापयेति – बौ.श्रौ.सू. ९.९

यः पशुकामः स्यात्तस्मा एतँ  सोमापौष्णं गार्मुतं चरुं निर्वपेदिति । तस्या एते भवतः सोमापूषणेमौ देवविति – बौश्रौसू. १३.३६

यदि बिभीयाद्दुश्चर्मा भविष्यामीति सोमापौष्णं चरुं निर्वपेदिति। तस्य एते भवतः सोमपूषणेमौ देवविति – बौश्रौसू १३.१८

*सं पूषन्विदुषेति नष्टमधिजिगमिषन्मूळ्हो वा। सं पूषन्नध्वन इति महान्तमध्वानमेष्यन्प्रतिभयं वा – आश्व.गृ.सू. ३.८.९

पूषा ते बिलं विष्यत्विति सर्पिर्धानस्य बिलमपावर्त्य दक्षिणाग्नावाज्यं वि-लाप्यादितिरस्यच्छिद्रपत्त्रेत्याज्यस्थालीमादाय महीनां पयोऽस्योषधीनां र-सस्तस्य तेऽक्षीयमाणस्य निर्वपामि देवयज्याया इति तस्यां पवित्रान्तर्हितायामाज्यं निरुप्येदं- आप.श्रौ.सू. २.६

पूषा मा पशुपाः पातु पूषा मा पथिपाः पातु पूषा माधिपाः पातु पूषा माधिपतिः पात्विति लोकानुपस्थाय प्राची दिगग्निर्देवताग्निं स ऋच्छतु यो मैतस्यै दिशोऽभिदासति  । - आप.श्रौ.सू. ६.१८

पूषा सन्येति सनीहारान्संशास्ति  आप.श्रौसू. १०.१८.५

सोमक्रयणीमभिमन्त्रयते  ।८। अकर्णगृहीतापदिबद्धा भवति  ।९।मित्रस्त्वा पदि बध्नात्विति दक्षिणं पूर्वपादं प्रेक्षते  ।  पूषाध्वनः पात्विति प्राचीं यतीमनुमन्त्रयते  ।१०। – आप.श्रौ.सू. १०.२२.१०

अग्निर्यजुर्भिः पूषा स्वगाकारैस्त इमं यज्ञमवन्तु – आप.श्रौ.सू. १४.१७

उष्णिहा छन्दस्तच्चक्षुः पूषा देवता – आप.श्रौ.सू. १६.२८

अयं वै पूषा योऽयं ( वातः) पवते । एष हीदं   सर्वं पुष्यति । माश १४,२,१.९ २.३२ ।

अश्विभ्यां पूष्णे पुरोडाशं द्वादशकपालं निर्वपति । तैसं १.८.१९.१

असौ वै पूषा यो ऽसौ ( सूर्यः) तपति । कौ ५.२, गो २.१.२० ।

आविन्नः पूषा विश्ववेदाः । तैसं १.८.१२.२

इयं पृथिवी वै पूषा [ (  प्रपथे पातु काठ ७.९१ । मै २,५, ५; ३,७, ६; काठ ७, ९; क ३७.४, तै १,७.२.५, माश ६,३.२.८, १३,२.२. ६, ४, १,१४ (तु. काठ ७, ११; क ६.१, माश २.५.४.७, ३,२,४,१९) ।

एवा हि पूषन्नित्यजाविकमेवैतत् । जैमि ३.१०९ ।

अथारुणः केतुर्मध्य उपादधात्। एवा हि पूषन्निति। ततो वै पूषोदतिष्ठत्। सेयं दिक् - तैआ १.२३.६ ।

तस्मादाहुरदन्तकः पूषा पिष्टभाजन इति ( कः पूषेति [माश) । गो २,१, २; माश १.७.४.७ ।

तस्माद्यं पूष्णे चरुं कुर्वन्ति प्रपिष्टानामेव कुर्वन्ति यथादन्तकायैवम् । माश १. ७.४.७ ।

तस्य ( पूष्णः) दन्तान्परोवाप तस्मादाहुरदन्तकः पूषा करम्भभाग इति । कौ ६,१३ ।

त्वं पूषा विधतः ( अग्ने) पासि नु त्मना । तैसं १,३.१४,१; तै ३.११.२.१ पूषणं वनिष्ठुना ( प्रीणामि) । मै ३.१५.९ ।

पूषणं दोर्भ्याम् ( प्रीणामि) । मे ३,१५.३ ( तु. मा २५.१) ।

पूषणं प्रतिष्ठामभ्यसृजन्त । काठ ३५,२ ० ।

पूषा गा अन्वेतु नः पूषा रक्षत्वर्वतः । पूषा वाजं  सनोतु नः । काठ ४,१५ ।

पूषा ऽपोषयत् । तै १,६. २.२ ।

पूषा प्रजनयिता ( प्रतिग्रहीता [मै) । मै ३.६.९ काठ १०.१ १; १२.१३ ।

पूषा प्रपिष्टभागोऽदन्तको हि । तैसं २.६.८.५

पूषा (श्रियः) भगम् ( आदत्त) । माश ११.४.३.३ ।

पूषा भगं भगपतिः । माश ११.४.३.१५

पूषा ( वै देवानाम् [माश ५.३. १,९]) भागदुघः । माश ३.९.४.३

पूषा भागदुघोऽशनं पाणिभ्यामुपनिधाता । माश १.१.२.१७ ।

पूषा मा प्रपथे पातु, पूषा मा पशुपाः पातु, पूषा माऽधिपतिः पातु । काठ ७.२ ।

पूषा रेवत्यन्वेति पन्थाम् । तै ३,१,२,९ ।

पूषा (वा इन्द्रियस्य [तैस.]) वीर्यस्यानुप्रदाता । तैसं २.२.१.४, मै २.१.१; काठ ९.१७ ।

पूषा विशां विट्पतिः । तै २.५.७.४ ।

पूषा विश्ववेदाः । मै २.६.९

पूषा वै पथीनामधिपतिः । माश १३.४.१.१४

पूषा वै श्लौण्यस्य भिषक् । तै ३.९.१७.२

श्लोणः – त्वग्रोगः (सा.भा.)

पूषा सोमक्रयण्याम् । तैसं ४.४.९.१। काठ ३४.१४ ।

पूषा स्वगाकारैः (स्वगाकारेण [तैआ]); (स्वाहाकारैः [मै]) (सहागच्छतु) । मै १,९.२, कठ ९.१०; क ४८.३, तैआ ३, ८,२ ।

पूषा हि सनीनामीशे । काठ २३.६ ।

पूष्ण एकादशकपालः । मै २.६.१३

पूष्णः करम्भः । तै १ ,५,११.३ माश ४.२.५.२२ ।

पूष्णः पोषेण मह्यं दीर्घायुत्वाय शतशारदाय शतं  शरद्भ्य आयुषे वर्चसे । तै १.२.१.१९ ।

पूष्णे प्रपथ्याय स्वाहा, पूष्णे नरन्धिषाय स्वाहा । काठ ४३,५ ।

पूष्णऽविम् । तैआ ३.१०.३ ।

पूष्णे शरसि ( ०शरसे [तैआ]) स्वाहा । मै ४.९.९, तैआ ४.१०.३,  १६.१; ५.८.७ ।

पूष्णो नवमी । मै ३,१५,४ ।

पूष्णो रेवती ( नक्षत्रम्) । गावः परस्ताद्वत्सा अवस्तात् । तै १.५.१.५ ।

पूष्णो वनिष्ठुः । काठ ५३.७ ।

पूष्णो हस्ताभ्याम् (त्वाऽऽददे) । काठ १.९ तै २.६.५.२  ।

प्रजननं वै पूषा । मै ४.१४.१६  माश ५.२.५.८ ।

प्रजापतिः पशून् सृष्ट्वा तेषां पूषणमधिपामकरोत् । काठ १०.१ १ ।

प्रतिष्ठा पूषा । तैसं ५.३.४.४ . काठ २१.१ ।

यास्ते पूषन्नावो अन्तः समुद्रे हिरण्ययीरन्तरिक्षे चरन्ति । ताभिर्यासि दूत्यां सूर्यस्य कामेन कृतः श्रव इछमानः । मै ४,१४.१६  ।

योषा वै सरस्वती वृषा पूषा । माश २.५.१.११ ।

रेवती नक्षत्रं, पूषा देवता । तैसं ४.४.१०.३ , मै २.१३.२० ।

सरस्वत्यै पूष्णे अग्नये स्वाहा । तैसं १.२.२. १; मै १,२ .२, काठ २.२ ।

स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं ( पृथिवी) वै पूषेयं  हीदं सर्वं पुष्यति यदिदं किं च । माश १४.४.२.२५

स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । तैआ १,१.१ ।।

पूषा षडक्षरया गायत्रीमुदजयत्, चतुर्धा ह्येतस्याः  षट् षडक्षराणि – मै.सं. १.११.१०, काठ.सं. १४.४

पथ्या पूष्णः (पत्नी) -  मै.सं. १.९.२, काठ.सं. ९.१०, गो.ब्रा. २.२.९, तै.आ. ३.९.१

पौष्णः ( प्रवर्ग्यः) उदन्तः । तैआ ५.११.४ ।

आरण्योऽजो नकुलश्शका ते पौष्णाः । तैसं ५.५.१२.१, मै ३.१४.१३ काठ ७.२ ।

पौष्णं चरुं श्यामो दक्षिणा । तैसं १.८.८.१ (तु. माश ५.३.१.९ ।

पौष्णं चरुं भागदुघस्य गृहे, श्यामो दक्षिणा । तैसं १.८.९.२ (तु मै २.६.५, ४.३.८ ।

पौष्णं ( पयः) उदन्तम् । मै १.८.१० ।

पौष्णश्चरुः । तैसं ७.५.२१.१   मै १.१०,१ ।

पौष्णश्चरुश्श्यामो दक्षिणा । मै २.६.४ काठ १५.९ ।

पौष्णाश्श्येतललामास्तूपराः । काठ ४९.४ ।

पौष्णौ रजतनाभी । काठ ४८.३ ।

श्यामः ( पशुः) पौष्णः ( पौष्णो नाभ्याम् [मै ३.१३.२ । मै ३,१३,८, ४,७,८ ( तु. कठ ४८, १ ।

स हि पौष्णो यच्छ्यामः (गौः) । माश ५,२,५.८ ।। -ष्ण- अन्नकाम- ४; पशु- २३३; २३४ द्र.] ।