prana-apana

 

प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान

टिप्पणी शतपथ ब्राह्मण १०.१.३.१ तथा १०.१.४.१ में उल्लेख आता है कि प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान तो अमृत हैं, जबकि शरीर में मज्जा, अस्थि, स्नायु, मांस, असृक् व त्वचा, तथा मेद मर्त्य हैं। प्रजापति ने मर्त्य भागों को अमृत भागों के बीच स्थापित कर दिया जिससे मृत्यु इन पर आक्रमण न कर पाए। प्राण चिति के ऊपर मज्जा को स्थापित किया, अपान चिति पर अस्थि को, व्यान चिति पर स्नायु को, उदान चिति पर मांस को तथा समान चिति पर मेद को । वाक् चिति पर असृक्, त्वचा आदि को स्थापित किया। इससे संकेत मिलता है कि प्राण, अपान आदि अमृत हैं नहीं, किन्तु साधना द्वारा उनको अमृत बनाया जा सकता है।

शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.१ में सोमयाग में आहवनीय अग्नि पर अग्निचयन का वर्णन है। यह अग्निचयन पांच चितियों या परतों या चरणों में किया जाता है। प्रथम चिति के संदर्भ में सबसे पहले ५० प्राणभृत् इष्टकाओं की स्थापना का वर्णन है। ५० प्राणभृत् इष्टकाओं का विभाजन १० – १० के समूहों में किया गया है। इस प्रकार पांच दिशाओं में पूर्व में स्थापित १० इष्टकाएं प्राण से, दक्षिण में स्थापित १० इष्टकाएं व्यान से, पश्चिम में स्थापित १० इष्टकाएं अपान से, उत्तर में स्थापित १० इष्टकाएं उदान से तथा उपरि दिशा या मध्य में स्थापित १० इष्टकाएं समान से सम्बन्धित हैं । पूरे विवरण का संक्षेप निम्नलिखित तालिका में प्रस्तुत किया गया है

 

 

प्राण

व्यान

अपान

उदान      

समान

दिशा

पूर्व

दक्षिण

पश्चिम

उत्तर

उपरि/मध्य

ऋषि

वसिष्ठ

भरद्वाज

जमदग्नि

विश्वामि-त्र

विश्वकर्मा

छन्द

गायत्री

त्रिष्टुप्

जगती

अनुष्टुप्

पंक्ति

विशेषता

भुवः

विश्वकर्मा

विश्वव्यचा

स्वः

मतिः

ऋतु

वसन्त

ग्रीष्म

वर्षा

शरद

हेमन्त

पात्र

उपांशु

अन्तर्याम

शुक्र

मन्थी

आग्रयण

अंग

 

मन

चक्षु

श्रोत्र

वाक्

पृष्ठ

रथन्तर

बृहत्

वैरूप

वैराज

शाक्वर-रैवत

साम

गायत्रं

स्वारं

ऋक्समम्

ऐडं

निधनवत्

स्तोम

त्रिवृत्

पञ्चदश

सप्तदश

एकविंश

त्रिणव-त्रयस्त्रिंश

पशु

गौ

मनुष्य

अश्व

अवि

अज

 

प्रश्न यह उठता है कि शतपथ ब्राह्मण में प्राण – अपान आदि के  इस वर्गीकरण का उद्देश्य क्या हो सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसका उद्देश्य प्राण, अपान आदि को अमृत स्तर तक विकसित करना है, जहां उनका क्षय न हो। अमृत प्राणों का स्वरूप कैसा हो सकता है, प्राणों को अमृत कैसे बनाया जा सकता है, इसका वर्णन शतपथ ब्राह्मण में अन्यत्र प्राप्त होता है। शतपथ ब्राह्मण ९.३.३.१२ में वसुधारा होम के संदर्भ में कल्पों की आहुति का कथन है। कहा गया है कि प्राण ही कल्प हैं और संवत्सर के १२ मासों के अनुसार यह १२ हैं। यहां कल्प से अभिप्राय उस संकल्प से लिया जा सकता है जिससे कामनाओं की पूर्ति कल्पवृक्ष की भांति हो जाती है। शतपथ ब्राह्मण १४.४.३.३१ (बृहदारण्यक उपनिषद १.३.३१) से संकेत मिलता है कि वाक्, चक्षु, श्रोत्र आदि मर्त्य इसलिए हैं क्योंकि इनके द्वारा कार्य सम्पन्न किया जाता है, अथवा यह कहें कि यह कर्म में भाग लेते हैं और इस कारण श्रान्त हो जाते हैं और यही मृत्यु है। वाक्, चक्षु व श्रोत्र ने देखा कि जो यह मध्यम प्राण है, यह लगातार संचरण – असंचरण कर रहा है लेकिन यह तो थकता ही नहीं है। अतः क्यों न इसी का रूप ग्रहण किया जाए। उन्होंने इसी मध्यम प्राण का रूप ग्रहण कर लिया। अतः वाक्, चक्षु, श्रोत्र को भी प्राणाः कहते हैं। यह मध्यम प्राण कौन सा हो सकता है जो कभी थकता नहीं, इसका संकेत हमें शतपथ ब्राह्मण १४.७.२.१ (बृहदारण्यक उपनिषद ४.२.१) से मिलता है। जो प्राण आत्मा से जुडा होगा, वह मध्यम प्राण हो सकता है। कहा गया है कि जब आत्मा  का शरीर से उत्क्रमण होता है तो आत्मा के उत्क्रमण के साथ प्राण उत्क्रमण करता है। प्राण के साथ सब प्राण उत्क्रमण करते हैं। यह विज्ञान की स्थिति है। तब यह स्थिति वैसी ही हो जाती है जैसे स्वप्न में । चक्षु, श्रोत्र, वाक् आदि सब प्राण आत्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त हो जाते हैं। जिस स्थिति का वर्णन ब्राह्मण ग्रन्थ कर रहे हैं, उसकी प्राप्ति की दिशा में एक कदम तभी बढाया जा सकता है जब हम स्थूल से सूक्ष्म भोजन की ओर जाएं और निद्रा पर विजय प्राप्त हो जाए। यह कथन हमें यह भी समझने में सहायता करता है कि मृत्यु होने पर जो आत्मा का उत्क्रमण होता है, वह आत्मा अपने साथ किन प्राणों, किन अनुभवों को लेकर यात्रा करती है। आत्मा के साथ वही प्राण जुड सकते हैं जो उसकी अपनी गति से तादात्म्य रख सकते हों।

मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र तथा वाक्

ऊपर तालिका में शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.१ के आधार पर उल्लेख है कि मन का सम्बन्ध व्यान व दक्षिण दिशा से, चक्षु का अपान व पश्चिम दिशा से, श्रोत्र का उदान व उत्तर दिशा से है। स्वयं प्राण पूर्व दिशा से सम्बन्धित है। पूर्व दिशा में यह अपेक्षा की जाती है कि अपने प्राणों को आत्मा के सबसे निकट रहने का स्थान दिया जाए, वह प्राण रस प्राप्ति या अन्न प्राप्ति की खोज में ब्रह्माण्ड में भटकते न फिरें, उन्हें आत्मा के परितः स्थित होकर ही सारा रस प्राप्त हो जाए। इसे वसन्त ऋतु या वसिष्ठ ऋषि कहा गया है। वसन्त और वसिष्ठ, दोनों का एक ही अर्थ है कि सबसे अधिक बसने वाला। दक्षिण दिशा दक्षता प्राप्ति की दिशा है। सोमयाग में दक्षिणाग्नि या अन्वाहार्यपचन अग्नि के गुणों के आधार पर दक्षिण दिशा के गुणों को समझा जा सकता है। इस अग्नि का अधिपति नल नैषध है जिसका पौराणिक आख्यान नल की प्रकृति को समझने में पूर्णतः सहायक है। नल की प्रकृति द्यूत वाली प्रकृति है जिसका विकास किया जा सकता है कि द्यूत रहते हुए भी कभी हार न हो। शतपथ ब्राह्मण १४.३.२.३ में मन को प्राणों का अधिपति कहा गया है जिसके द्वारा प्राणों की भेषज की जाती है। पश्चिम दिशा में चक्षु को प्राण कहा गया है। चक्षु अमृत कैसे बन सकता है, इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि सबसे पहली स्थिति तो हमारे दो चक्षुओं की है। यह कल्पना की जा सकती है कि यदि भ्रूमध्य का चक्षु प्रबल हो जाए तो इन २ चक्षुओं को पहुंचने वाली ऊर्जा में ह्रास हो सकता है। फिर भ्रूमध्य के चक्षु का मूल लगता है कि हृदय ज्योति में है। अतः चक्षु को तीन भागों में विभाजित किया जाता है – शुक्ल, कृष्ण व कनीनका। चक्षु का एक कार्य तो चक्षण करना है। दूसरा कार्य वर्षा करना भी है। कहा गया है कि चक्षुओं में ही तो अश्रु प्रकट होते हैं। हमारे शरीर में जहां भी जल प्रकट होता है, उसे वर्षा का रूप समझना चाहिए। सबसे स्थूल स्तर पर मूत्र की सृष्टि होती है। आधुनिक विज्ञान के माध्यम से हम सभी जानते हैं कि शरीर में वृक्क नामक अंग हमारे रक्त को छानते हैं जिस कारण रक्त का कुछ भाग छनकर मूत्र में रूपान्तरित हो जाता है। इसमें तो वर्षा जैसी कोई बात दिखाई नहीं देती। लेकिन इस स्तर की वर्षा को हम स्थूलतम वर्षा कह कर छोड देते हैं । इससे अगला स्तर स्वेद का प्रकट होना है। इससे अगला स्तर जिह्वा पर लार व रस का प्रकट होना है और सबसे ऊपर का स्तर चक्षुओं में अश्रुओं का प्रकट होना है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार चक्षुओं में lacrimal glands होते हैं जिनसे जल बाहर आने लगता है। कोई भी हर्ष या शोक हो, अश्रु आने लगते हैं। यह याज्ञिक वर्षा के सबसे निकट की स्थिति है। याज्ञिक वर्षा में ५ स्तर होते हैं – पुरोवात का बहना, अभ्रों का सम्प्लावयन, स्तनयित्नु या गर्जन तथा विद्युत का चमकना। तब वर्षा होती है। निचले स्तर की वर्षाओं में चक्षु के विकास का कोई योगदान है या नहीं, यह अन्वेषणीय है। वर्षा के लिए दूसरी अपेक्षा अभीप्सा की है। मण्डूक सदैव वर्षा की अभीप्सा करते रहते हैं। वास्तव में पश्चिम दिशा पाप नाश की, श्मशान बनाने की दिशा है। जब पापों का नाश हो जाए, उसके पश्चात् वर्षा की आवश्यकता पडती होगी। भागवत पुराण का तीसरा स्कन्ध कर्दम व देवहूति की कथा से सम्बद्ध है। कर्दम उस कीचड को कहते हैं जो पापों के नाश से उत्पन्न हुआ है। इस कर्दम को देवहूति की, देवकृपा की आवश्यकता पडती है। यही वर्षा हो सकती है। पश्चिम दिशा जगती छन्द से सम्बन्धित है और जगती छन्द का एक लक्षण दीक्षा है। दीक्षा का अर्थ है गर्भ जैसे रूप में स्थित होकर ब्रह्माण्ड की सारी ऊर्जा को ग्रहण करना, जहां अपना कोई प्रयास न हो, केवल आचार्य की कृपा से ही सब कुछ सम्पन्न हो रहा हो।

उत्तर दिशा में उदान प्राण तथा श्रोत्र को स्थान दिया गया है। अपने २ कर्णों से तो हम सभी परिचित हैं। लेकिन वैदिक साहित्य का श्रोत्र कौन सा हो सकता है, इसके बारे में अनुमान है कि ब्रह्मरन्ध्र ही वह श्रोत्र है। यह शरद ऋतु से सम्बन्धित है। कहा गया है कि वम्रियां (दीमक) जो पृथिवी में छेद बनाकर उससे मिट्टी बाहर लाती हैं, यह छिद्र हमारे श्रोत्र का ही प्रतीक है। और जो मिट्टी बाहर आती है, वह पृथिवी का रस है। इसका अर्थ हुआ कि हमारे शरीर से कोई ऊर्जा निकल कर लगातार हमारे श्रोत्र की ओर प्रवाहित होती है और उससे शीतलता उत्पन्न होती है। ऐसी कल्पना की जा सकती है कि यदि यह मुख्य श्रोत्र विकसित हो जाए तो हमारे कर्णों को पहुंचने वाली ऊर्जा में ह्रास हो सकता है। 

पुराणों में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है कि प्रजापति के प्राण से दक्ष का जन्म हुआ, अपान से क्रतु का, व्यान से पुलह का, उदान से पुलस्त्य का और समान से वसिष्ठ का। इसके अतिरिक्त, हृदय से भृगु की उत्पत्ति हुई, चक्षु से मरीचि की, शिर से अंगिरा की और श्रोत्र से अत्रि की)। हो सकता है कि यह उल्लेख ब्राह्मण ग्रन्थों के इस कथन की व्याख्या हो कि प्राण, अपान, व्यान, उदान व समान अमृत हैं। अमृत बने हुए अङ्गों से ही ऋषियों की उत्पत्ति की आशा की जा सकती है। जैसा कि सर्वविदित है, दक्ष से तात्पर्य किसी कार्य के निष्पादन में १०० प्रतिशत दक्षता प्राप्त करना है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार ऐसा संभव नहीं है कि किसी एक प्रकार की ऊर्जा को १०० प्रतिशत दूसरे प्रकार की ऊर्जा में रूपान्तरित कर दिया जाए। उसका कुछ न कुछ अंश तो नष्ट होगा ही। १०० प्रतिशत रूपान्तरण तभी संभव हो सकता है जब स्थूल रूप से कोई कार्य न किया जाए, सारा कार्य मन की कल्पना से ही सम्पन्न हो जाए, कल्प वृक्ष बन जाए। पुराणों की कथा में दक्ष प्रजा को उत्पन्न करता है और अपनी ६० कन्याओं को ऋषियों, पितरों आदि को दान करता है। इसका अर्थ होगा कि दक्ष का योगदान प्रकृति के रूपान्तरण में, प्रकृति को सात्त्विक बनाने में है। व्यान से पुलह की और उदान से पुलस्त्य की उत्पत्ति का उल्लेख है। पुलस्त्य को डा. फतहसिंह की भाषा में पुर के स्त्यान, फैलाव से समझ सकते हैं। जहां कारण – कार्य विद्यमान रहेंगे, वहां पुर का फैलाव होगा, जैसा कि रामायण में लंका या लक या भाग्य में है। कारण – कार्य से रहित स्थिति पुलह या पुरः की होनी चाहिए। सोमयाग में दक्षिणाग्नि को व्यान का रूप कहा गया है। इस अग्नि का देवता नल नैषध है। देवों को अर्पण हेतु जो भी हवि पकानी होती है, उसका पाक इसी अग्नि पर किया जाता है। नल पाक कार्य में, भोजन में रस उत्पन्न करने में निपुण है। यह पाक हमारे अचेतन या जड भाग का ही हो सकता है। नल की दूसरी विशेषता अश्व विद्या में प्रवीण होकर अक्ष विद्या को प्राप्त करना है। अक्ष विद्या की स्थिति को पुरः स्थिति के रूप में समझा जा सकता है। शतपथ ब्राह्मण के कथन में व्यान चिति पर स्नायुओं को स्थापित किया जाता है। स्नायुओं(muscles) को भी अक्षों का रूप समझा जा सकता है। समान को इस प्रकार समझा जा सकता है कि जहां मर्त्य और अमर्त्य स्तर में कोई भेद न रह जाए, वह समान स्थिति है। समान से वसिष्ठ ऋषि की उत्पत्ति का उल्लेख है। डा. फतहसिंह वेदों के आधार पर कहा करते थे कि वसिष्ठ और अगस्त्य का जन्म एक ही कुम्भ के वीर्य से हुआ। अगस्त्य तो उत्पन्न होने के बाद चारों दिशाओं में फैलते चले गए, जबकि वसिष्ठ का विकास ऊर्ध्वमुखी होता है।

          भागवत पुराण में आग्नीध्र जम्बू द्वीप का स्वामी बनता है। सोमयाग में आग्नीध्र ऋत्विज का अधिकार दक्षिणाग्नि पर होता है जो व्यान प्राण की प्रतीक है। गरुड पुराण २.२२/२.३२ में जम्बू द्वीप की स्थिति अस्थियों में कही गई है(शाक द्वीप की मज्जा में, कुश की मांस में, क्रौञ्च की शिर में, गोमेदक की रोम में, शाल्मलि की त्वचा में तथा पुष्कर की नखों में)। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार मर्त्य अस्थियों को अमृत बनाने के लिए उनकी चिति अपान चिति पर बनाई जाती है। यह एक विरोधाभास है। यह संभव है कि द्वीपों का शरीर के अवयवों में यह विभाजन पुराण – पुराण में भिन्न हो। लेकिन इस प्रकार का कथन किसी अन्य पुराण में अभी तक नहीं पाया गया है। अतः इसकी सत्यता को परखने का कोई उपाय नहीं है।

जीव में जीवन का सर्वप्रथम लक्षण प्राण होता है। जब श्वास – प्रश्वास समाप्त हो जाता है तो जीव मृत हो जाता है। निष्क्रिय पडे हुए तत्त्व प्राण द्वारा ही ब्रह्माण्ड को अपने अन्दर धारण करने का प्रयत्न करते हैं। प्राण के अमृतत्व के क्या लक्षण हो सकते हैं, इस विषय में उपनिषद के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि सामान्य रूप से हम केवल नासिका द्वारा ही श्वास का ग्रहण करते हैं। उपनिषद का कहना है कि नासिका के अतिरिक्त हृदय, नाभि व पादांगुष्ठ भी प्राण ग्रहण के केन्द्र हैं। मत्स्य आदि जीवों में प्राणों का आदान मुख्य रूप से त्वचा द्वारा होता है। वनस्पति जगत में प्राण का आदान पत्तों के माध्यम से होता है जिसे त्वचा का रूप ही कहा जा सकता है। डा. भूदेव शर्मा का कहना है कि उन्होंने ऐसे योगी को देखा है जो चक्षुओं द्वारा भी श्वास ले सकता था। इस तथ्य को प्राणों की अमरता का एक लक्षण मान सकते हैं।

प्राणाग्निहोत्र में प्राण आदि मन्त्रों के ऋषि, देवता आदि(देवीभागवत पुराण ११.२२.३४)

 

 

प्राण

अपान

व्यान

उदान

समान

ऋषि

क्षुधाग्नि

श्रद्धाग्नि

हुताशन

आग्निः

विरूपक अग्नि

ऋषि वर्ण

रुक्म

गोक्षीर 

अम्बुज

शक्रगोप

विद्युत

देवता

आदित्य

सोम

अग्नि

वायु

पर्जन्य

छन्द

गायत्री

उष्णिक्

अनुष्टुप्

बृहती

पंक्ति

 

यद्यपि प्राणाग्निहोत्रोपनिषद में देवीभागवत पुराण से अधिक सूचनाएं उपलब्ध हैं, लेकिन उपरोक्त तालिका में दी गई सूचना उपनिषद में नहीं है। प्राण और अपान का एक युगल है जबकि व्यान और समान का एक युगल है। प्राण को अमृत स्तर का तथा अपान का मर्त्य स्तर का माना जाता है। जीवन धारण करने के लिए प्राण का अपान में रूपान्तरण किया जाता है। हम जो श्वास ले रहे हैं, जो आक्सीजन वायुमण्डल से ग्रहण कर रहे हैं, उसका अवशोषण हमारे रक्त में उपस्थित लौह कण कर लेते हैं। फिर यह लौह कण उस आक्सीजन का स्थान्तरण हमारे शरीर के अन्य कोषों को कर देते हैं। इस आक्सीजन स्थान्तरण में एक बहुत कम मात्रा की ऊष्मा का जनन होता है। लेकिन इसी छोटी सी ऊष्मा से हमारा सारा जीवन व्यापार संचालित होता है( Quest for New Materials, हिन्दी अनुवाद, लेखक- डा. एस.टी.लक्ष्मीकुमार, विज्ञान प्रसार, दिल्ली द्वारा प्रकाशित)। डा. लक्ष्मीकुमार ने इसे माइक्रोमोटर नाम दिया है। अन्य क्रियाओं से भी ऊष्मा का जनन होता होगा। यह प्रक्रिया देवीभागवत पुराण की उपरोक्त तालिका में दिए गए अपान मन्त्र के लक्षणों से विपरीत जाती है। अपान मन्त्र का ऋषि श्रद्धाग्नि और देवता सोम है, सूर्य नहीं। यदि देवता सोम है तो अपान द्वारा शीतलता उत्पन्न होनी चाहिए, उष्णता नहीं। इस स्थिति का हल व्यान वायु द्वारा निकाला जा सकता है। सार्वत्रिक रूप से कहा जाता है कि व्यान की स्थिति सर्व सन्धियों में है। एक सम्भावना तो यह है कि यदि व्यान रूप सन्धि न हो तो प्राण का अपान में रूपान्तरण होने ही न पाए। यदि ७ कोशों की भाषा में सोचें तो एक कोष अपनी ऊर्जा दूसरे कोष को दे ही न पाए। दूसरी स्थिति यह है कि यदि प्राण का अपान में रूपान्तरण हो भी गया तो अपान सूर्य प्रकार हो, चन्द्र प्रकार का नहीं। अपान को चन्द्र प्रकार का बनाने के लिए यह आवश्यक है कि व्यान का शोधन किया जाए। गवामयन सत्र याग कम से कम एक वर्ष का होता है। इस याग में एक श्येन का निर्माण किया जाता है। पहले ६ मासों में उसके एक पक्ष का निर्माण होता है जो प्राण का रूप है। इस विश्वजित् कहते हैं। दूसरे ६ मासों में उसके दूसरे पक्ष का निर्माण होता है जिसे सर्वजित् कहते हैं। यह अपान का रूप है। दोनों पक्षों के बीच का दिन विषुवत् अह कहलाता है( द्रष्टव्य - गवामयन याग के संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण २.४१ का यह कथन कि विषुवान् दिवस से पूर्व तक प्राण का आधिपत्य है, विषुवान् दिवस व्यान है और विषुवान् दिवस के पश्चात् अपान का वर्चस्व होता है । अपान इस सबका आहरण करता है )। विषुवत् अह का मह्त्त्व इस प्रकार समझाया जाता है कि पृथिवी पर विषुवत् रेखा पर सूर्य की किरणें सीधी पडती हैं। अन्य स्थानों पर तिरछी पडती हैं। विषुवत् अह व्यान का रूप है। इस अह के मह्त्त्व को समझाने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों में एक आख्यान की रचना की गई है । स्वर्भानु असुर ने सूर्य को अपने तम से ढंक लिया। तब इन्द्र ने अपने वज्र से स्वर्भानु असुर का वध किया। यह अह वज्र निर्माण करने के लिए है। इस अह के दोनों ओर ३-३ दिनों की संज्ञा स्वरसाम होती है, अर्थात् उन अहों में स्वरों की प्रधानता होती है, व्यंजनों की नहीं। अथवा यों कहें कि जडता को गति में, स्थूलता को सूक्ष्मता में रूपान्तरित कर लिया जाता है। तब जाकर विषुवत् अह में स्वर्भानु असुर का वध हो पाता है। इससे अधिक इस याग के विषय में ज्ञात नहीं है। लेकिन प्राण और अपान की सूर्य व चन्द्र प्रकृतियों का कथन हमें इस याग को पूर्ण रूप से समझने की कुंजी प्रदान करता है।

      

          अथर्ववेद १५.१५ से १५.१७ सूक्त प्राण, अपान और व्यान के संदर्भ में हैं । इन सूक्तों में प्राण आदि में से प्रत्येक को ७ भागों में विभाजित किया गया है । छठे प्राण को पशव: कहा गया है । भूमि से आरम्भ करके संवत्सर तक ७ व्यानों को गिनाया गया है ।

तस्य व्रात्यस्य।१

सप्त प्राणाः सप्तापानाः सप्त व्यानाः।२

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य प्रथमः प्राण ऊर्ध्वो नामायं सो अग्निः।३

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य द्वितीयः प्राणः प्रौढो नामासौ स आदित्यः।४

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य तृतीयः प्राणो३भ्यूढोनामासौ स चन्द्रमाः।५

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य चतुर्थः प्राणो विभूर्नामायं स पवमानः।६

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य पञ्चमः प्राणो योनिर्नाम ता इमा आपः।७

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य षष्ठः प्राणः प्रियो नाम त इमे पशवः।८

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य सप्तमः प्राणोपरिमितो नाम ता इमाः प्रजाः।९

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य प्रथमोऽपानः सा पौर्णमासी।१

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य द्वितीयोपानः साष्टका।२

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य तृतीयोपानः सामावास्या।३

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य चतुर्थोऽपानः सा श्रद्धा।४

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य पञ्चमोऽपानः सा दीक्षा।५

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य षष्ठोऽपानः स यज्ञः।६

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य सप्तमोऽपानस्ता इमा दक्षिणाः।७

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य प्रथमो व्यानः सेयं भूमिः।१

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य द्वितीयो व्यानस्तदन्तरिक्षम्।२

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य तृतीयो व्यानः सा द्यौः।३

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य चतुर्थो व्यानस्तानि नक्षत्राणि।४

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य पञ्चमो व्यानस्त ऋतवः।५

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य षष्ठो व्यानस्त आर्तवाः।६

तस्य व्रात्यस्य। योऽस्य सप्तमो व्यानः स संवत्सरः।७

तस्य व्रात्यस्य।समानमर्थं परि यन्ति देवाः संवत्सरं वा एतदृतवोनुपरियन्ति व्रात्यं च।८

तस्य व्रात्यस्य। यदादित्यमभिसंविशन्त्यमावास्यां चैव तत्पौर्णासीं च।९

तस्य व्रात्यस्य। एकं तदेषाममृतत्वमित्याहुतिरेव।१०

 

प्रथम लेखन – १४-१-२०११ई.( पौष शुक्ल नवमी, विक्रम संवत् २०६७)

 

Contributions of ancient Indian knowledge to modern medicine and cardiology

Raj Vedam

Hindu University of America, Orlando, FL & Arsha Vidya Satsanga, Houston, TX, USA

Tabassum A. Pansare

Government Ayurved College, Osmanabad, Maharashtra, India

Jagat Narula

 

Indian Heart J. 2021 Sep-Oct; 73(5): 531–534.

 

 

In a section on Kaya Chikitsa Tantra (physical medicine doctrine), Sus'ruta described symptoms and treatment of heart disease (Hridroga) in the 43rd chapter.35 The hridroga were reported due to dysfunction of vayu (wind or circulation), especially prana (air exchange) and vyana (omni present air or circulation) vayu.36 Furthermore, hridaya was also associated with sadhak pitta (heart-mind balance, consciousness),37 avalambak kapha (i.e. structural integrity of heart and lungs)38 and oja (metabolism or energy distribution).39

Pranavayu was associated with blood cleansing and acceptance of the rasa–rakta complex in the heart (aadaan), valve closure, and generating praspand (cardiac impulse). Pranavayu brought amberpiyush (oxygen) with every inspiration and udanavayu provided bala (energy) to cardiac muscles. The latter was accountable for the force required to propel and circulate (vyana) the rasa–rakta complex along the mahadhamanee (aorta). Defects of pranavayu and udanavayu could result in enlargement or failing of heart. Sus'ruta described mandala sandhis (or the valves) that controlled the unidirectional flow of rasa–rakta complex in and out of the heart. In amavata (arthritis) valves could become affected. The vyanavayu controlled the rhythmicity of the hridaya as well as contraction and relaxation.40 Vyanavayu was considered responsible for the circulation of rasa–rakta complex from the heart to the body along three directions i.e. upwards (heart to head and back), horizontally (portal circulation) and downwards (peripheral circulation). Samanavayu indirectly influenced the heart by bringing the nutritive fluid from digestive tract to the heart. On the other hand, whereas sadhakapitta could affect rhythmic control of the heart,41 the avalambaka kapha accounted for lubrication42 and could now considered to be associated with pericardial effusion, pleural effusion and pulmonary edema.